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और लंका राम की मित्र शक्तियां थीं।

रामचरित अत्यन्त उदात्त और दैवी गुणों से परिपूर्ण है। वे लोकोत्तर आदर्श पुत्र, पति, पिता, मित्र और नृपति रहे। उनका शौर्य, रणपाण्डिय और दृढ़चित्तता असाधारण थी, फिर भी राम अपने जीवन में दु:खी रहे। युवराज होते ही वनवासी हुए। वनवास-काल में सीता-विछोह और रावण-विग्रह की विपत्तियां आयीं। अयोध्या लौटने पर सीता को त्यागना पड़ा, पत्नी और पुत्र-सुख से वंचित रहना पड़ा। पीछे घटनावश लक्ष्मण को भी त्यागना पड़ा। जिससे दुःखी हो लक्ष्मण को सरयूगर्भ में जलमग्न हो प्राण-घात करना पड़ा। पीछे उनके दुःख से दुःखी राम, भरत, शत्रुन तीनों को गुप्तारघाट में आत्मघात करना पड़ा।

वाल्मीकि और उनकी रामायण

रामचरित-सम्बन्धी जितने ग्रंथ संस्कृत और वर्तमान भारतीय भाषाओं में हैं, उतने कृष्ण और बुद्ध को छोड़ और किसी एक व्यक्ति के विषय में नहीं लिखे गए। बौद्धग्रंथों में भी 'राम' का वर्णन वहुत है तथा एक ग्रंथ 'दशरथ जातक' तो बहुत ही प्रसिद्ध है, जिसमें रामकथा अधिकांश में ज्यों की त्यों लिखी है। जैनग्रंथों में भी रामचर्चा बहुत है। एक जैन रामायण भी है तथा अपभ्रंश में भी जैन विद्वानों ने रामचरित पर बड़े-बड़े काव्य लिखे हैं, जिनमें स्वयंभू कवि कृत रामायण अप्रतिम है। वेद और विविध पुराणों में तो रामचर्चा है ही; परन्तु रामचरित का सबसे अधिक प्रामाणिक सांगोपांग वर्णन वाल्मीकि रामायण में ही है तथा वाल्मीकि रामायण ही विश्व-विश्रुत, सर्वाधिक प्राचीन, सर्वाधिक प्रामाणिक, सर्वाधिक सांगोपांग, पूर्ण पुस्तक है।

कहा जाता है कि वाल्मीकि राम के जीवन-काल में जीवित थे। उन्हीं के आश्रम में भगवती सीता ने निर्वासन के बारह वर्ष व्यतीत किए तथा वहीं लव-कुश नामक दो पुत्रों को जन्म दिया। वाल्मीकि ने राम के जीवन-काल में ही रामायण की रचना की तथा उसे रामात्मज लव-कुश को कण्ठस्थ कराया। कालान्तर में जब राम ने नैमिषारण्य में, जो वर्तमान सीतापुर से आठ कोस दूर एक प्रसिद्ध तीर्थस्थान है, यज्ञ किया, तब वाल्मीकि ने लव-कुश के द्वारा नैमिष में रामायण का गान कराया। इस गान को राम ने सुना। सीता का शरीरान्त भी वाल्मीकि के ही आश्रम में हुआ।

परन्तु यह बात सर्वथा असम्भव है। निसन्देह वाल्मीकि रामायण बुद्ध और पाणिनि से पूर्व का ग्रंथ है; परन्तु यह ग्रंथ ई° पू° सातवीं शताब्दी

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