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लंका की उत्तरी दिशा में युद्धभुमि से दूर युवराज मेघनाद का प्रमोद वन था। यहीं उसका स्वर्णमहल था। स्वर्णमहल फूलों और रत्नों से सजा हुआ था। डालों पर कोयल कूक रही थी। भौंरे गूंज रहे थे। फूल खिले थे। झरने झर-झर झर रहे थे। द्वारों पर राक्षस स्त्रियां वीरवेश धारण किए, ढाल, तलवार लिए घूम रही थीं। उनकी वेणी में मोती गुथे थे। कुचों पर स्वर्णकवच कसा था, तरकश बाणों से परिपूर्ण थे। नितम्ब में करधनी, पैरों में नूपुर और वेणी में मोती थे। वीणा-मुरज-मुरली तथा सप्तस्वर बज रहे थे। मधुरकंठो बालाएं गा रहो थीं। मेघनाद सुलोचना सहित स्वर्ण सिंहासन पर बैठा मद्यपान कर रहा था।

गायन में उन्मत्त होकर मेघनाद ने मद्यपात्र अपनी पत्नी सुलोचना के अधरों से लगाकर कहा, "वाह! जीवन भी इसी मद्य की भांति उन्माददाता हो रहा है। यह पृथ्वी कितनी सुन्दर है प्रिये!"

"केवल वीर पुरुष के लिए ही नाथ! कृमि-कीट की भांति जीवित रहने वालों के लिए यही धराधाम नरकतुल्य है।"

"उन अधम कायरों की बातें जाने दो प्रिये! आओ हम लोग एक-एक पात्र उस सुवासित मद्य का और पीकर इस सुवासित वासन्ती वायु की भांति झूमें।"

"पियो वीर स्वामी! इस मधु के साथ इस चिरकिंकरी का चिरप्रेम भी पान करो।"

परन्तु इस आनन्द वेला में बाधा पड़ी। द्वार का पर्दा हटाकर प्रभाषा धाय ने चिन्तित भाव से कक्ष में प्रवेश किया। उसे देखते ही सब स्तम्भित हो गए। गायन और मद्यपान रुक गया। मेघनाद ने आसन से उतर उनके चरणों में प्रणाम करके कहा, "माता! इस भवन में आज असमय में कैसे आई? लंका में कुशल तो है?"

धाय ने मेघनाद को आशीर्वाद देकर कहा, 'पुत्र! कुशल कहां, स्वर्ण- पुरी लंका की दुर्दशा क्या कहूं? तुम्हारा प्रिय भाई वीरवाहन मारा गया। शोक से उन्मत्त हो राक्षसाधिपति तुम्हारे पिता स्वयं युद्ध का साज सज रहे हैं।"

मेघनाद ने विस्मित होकर पूछा, "भगवति! यह तुम क्या कहती

हो? किस पापिष्ठ ने मेरे प्रिय अनुज का वध किया? उस तपस्वी राम को तो मैंने निशायुद्ध में मार डाला था। मेरे बाणों की मार से शत्रु सैन्य खण्ड-खण्ड हो गया था। हे, माता! अब तुमने यह अद्भुत वार्ता कहां सुनी?

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