"हाय, भरत! मैंने इतने दिनों में जो सुयश संचय किया, वह तुमने क्षण-भर में ही प्राप्त कर लिया। भरत! तुम मुझसे भी ऊंचे बढ़ गए।"
सीता बोलीं, "आर्यपुत्र! भरत को मांगी हुई वस्तु दे दीजिए।"
"अच्छा भाई भरत! लो।" यह कहकर राम ने अपनी खड़ाऊं भरत को दे दी।
भरत ने उन्हें मस्तक से लगाते हुए कहा, "बड़ी दया, बड़ी कृपा, आपने मुझे कृतकृत्य कर दिया। मन्त्री जी! अब आप भैया को राजतिलक कर दीजिए।" राम ने अब बाधा नहीं दी। उन्होंने सुमन्त से कहा, "आर्य सुमन्त! जो कुछ भरत कहें, वही कीजिए।"
सुमन्त ने स्वीकार किया और राजपुरोहित ने आगे बढ़कर राम को राजतिलक कर दिया। वेदमन्त्रों का उच्चारण और शंख-तुरही की ध्वनि आश्रम में गूंज उठी। सबने राम और भरत की जय-जयकार की।
भरत बोले, "अहा, अब मैं परिचितों की दृष्टि में आदर के योग्य हुआ। अयोध्यावासी भी अब मुझे क्षमा कर देंगे। अब मैं स्वर्गवासी महाराज का सुशील पुत्र कहा जा सकूँगा। अब भाइयों की प्रतिष्ठा भी मुझे मिलेगी। आज जन्म सफल हुआ।"
राम ने कहा, "भैया! राज्य को एक क्षण भी सूना छोड़ना ठीक नहीं है। इसी से आज ही तुम्हें लौट जाना होगा।"
"जो आज्ञा, मैं आज ही लौट जाऊंगा। नगरनिवासी आपके आने की बाट जोहते बैठे हैं। अब आपकी इन खड़ाऊंओं को दिखाकर उन्हें सुखी करूंगा।"
सुमन्त ने पूछा, "राजभद्र! अब मैं क्या करूं?"
"राम ने कहा, "आर्य! महाराज की तरह भरत की रक्षा कीजिए।"
सुमन्त ने सांस खींचकर कहा, "अच्छा, जब तक सांस है, तब तकॱॱॱ।"
राम बोले, "भैया भरत! मेरे सामने रथ पर बैठो।"
"जो आज्ञा!" कहकर भरत सबको प्रणाम कर वहां से चल दिए।
भरत जब राम को लौटाने में असमर्थ हुए, तो वे उनके प्रतिनिधि बन राज्य करने लगे। राम कुछ दिन चित्रकूट रह दण्डकारण्य में चले गए। यह निष्कासित आर्यों का स्थान था। दोषी जन को आर्य दण्डकारण्य में निष्कासित कर देते थे। वहां पंचवटी में रहे, तथा जनस्थान में अगस्त्य से मिले। राम चित्रकूट में १० मास और पंचवटी में १२ वर्ष रहे। यहां
११६