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जाकर उन्हें ले आएं?"

सीता ने कहा, "मैं ही जाती हूं आर्यपुत्र!"

सीता बाहर आईं। उन्हें देखकर सुमन्त ने भरत से कहा, "अरे, सीता स्वयं ही आ रही हैं।"

भरत ने भी उन्हें देखा, "यही जनक की राजदुलारी हैं, तपाए हुए सोने के जैसा इनका तेज झलक रहा है। यह ही हैं जिन्होंने पति के लिए राज सुख त्यागा। धन्य भगवती! यह तो महाराज जनक की तप की प्रति-मूर्ति-सी दीख पड़ती हैं। पूज्ये! मैं भरत आपके चरणों में अभिवादन करता हूँ!"

सीता ने समीप पहुंचकर कहा, "आयुष्मान हो कुमार! आओ, भाई के मनोरथ पूरे करो। अपने दर्शन से उनकी आंखें ठंडी करो। आओ, कुमार! भीतर आओ।"

सुमन्त ने भी कहा, "जाइए कुमार!"

भरत ने कहा, "आप भी चलिए।"

सुमन्त ने आंखों में आंसू भर कहा, "नहीं, पहले आप जाइए।"

भरत ने अन्दर आकर राम को प्रणाम किया, आर्य! मैं भरत आपका अभिवादन करता हूं!"

राम ने भरत को देखते ही उठकर कहा, "आओ, भैया! तुम्हारी बड़ी आयु हो! आओ, मेरी छाती से लग जाओ। अपना मुंह तो ऊंचा उठाओ, मैं तनिक आंख भर कर देख लूं।"

सुमन्त ने भी अन्दर आकर राम से कहा, "आपकी जय हो राम!"

आइए, आर्य! पिताजी तो आपके बिना एक क्षण भी नहीं रह सकते थे। इस बार दया और प्रेम के वे अवतार आपको भी छोड़ गए?"

"हां, भद्र! महाराज का स्वर्गवास, आपका वनवास, भरत का शोक और अयोध्या का सुना होना, यह सब मुझे देखना पड़ रहा है।"

यह कहकर वे रोने लगे। सीता बोलीं, "आर्य! आप हमें क्यों रुलाते हैं?"

राम ने कहा, "सीते! यह धीरज रखने का समय है। लमण! जल लाओ।"

परन्तु भरत ने लक्ष्मण को रोक दिया और स्वयं जल लाकर उन्हें दिया। राम बोले, "सीते! लक्ष्मण के काम में तो साझा हो गया।"

सीता ने कहा, "इनका भी तो अधिकार है।"

"अच्छी बात है। हम सेवा बांट देते हैं। यहां लक्ष्मण सेवा करें और अयोध्या में भरत।"

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