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राजा और प्रजा।
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हम लोगोंसे जो कुछ डाकू लोग छीन लिया करते थे वह अब पुलिस और वकील दोनों मिलकर ले लेते हैं।

इस प्रकार मनका एक भाग जितना निश्चित निश्चेष्ट होता है उसके दूसरे भागपर उतना ही अधिक भारी बोझ मालूम होता है । खाद्यरस और पाकरसके मिलनेसे भोजनका परिपाक होता है । अंगरे- जोंकी सभ्यता हम लोगोंफे लिये खाद्यमात्र है किन्तु उसमें रसका बिलकुल अभाव है। इस कारण हम लोगोंका मन अपने आपमें ऐसा पाकरस एकत्र नहीं कर सकता जो उस खाद्यके उपयुक्त हो। हम लोग लेते तो हैं लेकिन पाते नहीं। हम लोग अँगरेजोंके सब कार्योंका फल तो भोगते हैं लेकिन हम उसे अपना नहीं कर सकते और उसे अपना करनेकी आशा भी बराबर नष्ट होती जाती है।

राज्य जीतनेसे गौरव और लाभ होता है। यदि राज्यका अच्छी तरह शासन किया जाय तो उससे धर्म और अर्थ होता है। तो क्या राजा और प्रजाके हृदयोंमें मेल स्थापित करनेका कोई माहात्म्य नहीं है और उससे कोई सुभीता नहीं हो सकता ? आजकलके भारतवर्षकी राजनीतिमें क्या यही विषय सबसे बढ़कर चिन्तनीय और आलोचना करने योग्य नहीं है ?

प्रश्न केवल यही है कि यह सब काम कैसे हो ? एक एक करके यह दिखला ही दिया गया है कि राजा और प्रजाके बीचमें बहुतसी दुर्भेद्य, दुरूह और स्वाभाविक बाधाएँ खड़ी हैं। उन बाधाओंके लिये किसी किसी सहृदय अँगरेजको भी अनेक अवसरोंपर चिन्तित और दुःखी होना पड़ता है। लेकिन फिर भी जो बात असम्भव हो, जो बात असाध्य हो उसके लिये विलाप करनेका फल ही क्या हो सकता है ?