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राजा और प्रजा।
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जिस दिन आर्य जाति गिरिगुफाके बन्धनसे मुक्ति पानेवाली स्रोतस्विनीकी तरह अकस्मात् बाहर होकर विश्वपथपर आ पड़ी थी और उसकी एक शाखाने वेदमंत्रोंका उच्चारण करते हुए भारतवर्षके बनोंमें यज्ञाग्नि प्रज्व- लित की थी, उस दिन भारतके आर्य-अनार्य-सम्मिलन क्षेत्रमें जो विपुल इतिहासकी उपक्रमणिकाका गायन आरम्भ हुआ था आज क्या वह समाप्त होनेके पहले ही शान्त हो गया है ? बच्चोंके मिट्टीके घरकी तरह क्या विधाताने अनादरके साथ आज उसे हटात् गिरा डाला है ? उसके पश्चात् इसी भारतवर्षसे बौद्ध धर्मके मिलन-मंत्रने, करुणाजलसे भरे हुए गम्भीर मेघके समान गरजते हुए, एशियाके पूर्व सागरतीरकी निवासिनी समस्त मंगोलियन जातिको जाग्रत कर दिया और ब्रह्मदेशसे लेकर बहुत दूर जपानतकके भिन्न भिन्न भाषाभाषी अनात्मीयोंको भी धर्मसम्बन्धमें बाँधकर भारतके साथ एकात्म बना दिया। भारतके क्षेत्रमें उस महत् शक्तिका अभ्युदय क्या केवल भारतके भाग्यमें ही, भारत- वर्षके लिये ही परिणामहीन निष्फलताके रूपमें पर्यवसित हुआ है ? इसके अनन्तर एशियाके पश्चिमीय प्रान्तसे देववलकी प्रेरणासे एक और मानव महाशक्ति प्रमुप्तिसे जाग्रत होकर और ऐक्यका सन्देश लेकर प्रबल वेगसे पृथिवीपर फैलती हुई बाहर निकली। इस महाशक्तिको विधा- ताने भारतमें केवल बुला ही नहीं लिया, चिरकालके लिये उसे आश्रय भी दिया। हमारे इतिहासमें यह घटना भी क्या कोई आकस्मिक उत्पात मात्र है ? क्या इसमें किसी नित्य सत्यका प्रभाव दिखलाई नहीं पड़ता : इसके पश्चात् युरोपकै महाक्षेत्रमे मानवशक्ति जीवनशक्तिकी प्रबलता, विज्ञानके कौतूहल और पुण्यसंग्रहकी आकांक्षासे जब विश्वामि- मुखी होकर बाहर निकली, उस समय उसकी भी एक बड़ी धारा विधाताके आह्वानपर यहाँ आई और अब अपने आघात द्वारा