पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/९६

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1 संसार में बड़े-बड़े परिवर्तन हुए। न जाने कितनी जातियाँ मिट गयी और न जाने कितनी जातियाँ नयी उत्पन्न हो गयी। स्वभाव और चरित्र के भयानक परिवर्तन इस संसार में देखने को मिले। परन्तु राजपूतों के जीवन का कोई भी परिवर्तन आज तक आँखों के सामने नहीं आया। इस जाति के लोग हजारों वर्ष पहले जैसे थे, आज भी उनकी संतानें हजारों वर्षों के बाद वैसी ही हैं। राजपूत राजवंशों की एक जाति है, जिसकी शाखाओं और उपशाखाओं ने थोड़े से राजपूतों को लाखों और करोड़ों की संख्या तक पहुंचा दिया है। राजवंश के नाम पर राजपूत शब्द उनके साथ रह गया है। राज्यों के स्थान पर उनके जीवन की विवशता और दरिद्रता उनके साथ रह गयी है। लेकिन उनके चरित्र की स्वतंत्र प्रियता में कोई अंतर नहीं आया। एक राजपूत अपने सम्मान की रक्षा में आज भी जिस प्रकार अपने प्राणों को बलिदान करने के लिए तैयार हो जाता है, उसको देखकर इस बात का अनुमान किया जा सकता है कि प्राचीन काल में स्वाभिमान की भावना ने इनकी अंतरात्माओं में कितनी गहराई तक प्रवेश किया था। मेवाड़ में जितनी भी बड़ी-बड़ी जागीरें हैं, उनका अधिकारी प्रत्येक श्रेष्ठ सामन्त अपने बेटों और भाइयों की भरण पोषण की व्यवस्था अपनी मर्यादा के अनुसार करता है। जिस जागीर की वार्षिक मालगुजारी साठ हजार से अस्सी हजार रुपये तक होती है, उस जागीर के अधिकारी का दूसरा भाई तीन हजार से पाँच हजार रुपये वार्षिक मालगुजारी का इलाका पाने का अधिकारी होता है। यह उसका बपौता है अर्थात् उसका पैतृक अधिकार है। इसके सिवा वह अपने राजा के यहाँ अथवा बाहर कोई भी कार्य कर सकता है। उससे जो छोटे भाई होते हैं, उनको भी जागीर में निर्धारित भाग मिलता है। इसी प्रकार का निर्णय सामन्तों के पुत्रों के लिए होता है। सबसे पहले बड़ा बेटा अधिकारी होता है। लेकिन उससे जो छोटे होते हैं, उनके भी निर्धारित भाग होते हैं। उनके इन अधिकारों को न कोई वदल सकता है और न कम कर सकता है। जागीर में भाइयों और बेटों के जो पैतृक अधिकार होते हैं, उनका क्रम पुत्रों के साथ प्रपौत्रों में बराबर चला जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि विभाजन होते-होते एक दिन किसी अच्छी जागीर के भी सैकड़ों और हजारों टुकड़ों हो जाते हैं और उस जागीर का महत्त्व नष्ट हो जाता है। चरसा शब्द का अर्थ चर्म होता है। भूमि की नाप के लिए इस चरसा शब्द का प्रयोग किया जाता है। अंग्रेजी में इसको हाइड कहते हैं। एक अश्वारोही सैनिक के भरण-पोषण और सैनिक जीवन व्यतीत करने के लिए जितनी भूमि उसे दी जाती है, मेवाड़ में उसकी नाप चरसा के नाम पर की जाती है। जागीरदारी प्रथा के अनुसार, नीची श्रेणी के सैनिक मेवाड़ में जितनी भूमि पाते हैं, इंगलैंड में भी उस श्रेणी के सैनिक को उतनी ही भूमि इस प्रथा के अनुसार मिलती है। राजस्थान में भूमि की नाप में चरसा शब्द का प्रयोग किया जाता है और इंगलैंड में हाइड के द्वारा भूमि की नाप होती है। दोनों का अर्थ एक ही है। दोनों का उपयोग भी एक ही अर्थ में होता है । इंगलैंड में एंग्लो सैक्शन शासन का आरंभ भूमि की इसी नाप के द्वारा हुआ था। मेवाड़ में एक चरसा भूमि एक अश्वारोही सैनिक को दिये जाने का नियम है। इंगलैंड में नाइट उपाधि के फौजी आदमी को चार हाइड भूमि देने का नियम था। इस भूमि का परिमाप चालीस एकड़ के बराबर है। मेवाड़ में एक चरसा भूमि का अर्थ पच्चीस से तीस बीघा तक का होता है। चरसा 96