इस प्रकार की परिस्थितियों में नयेसामन्तों के अभिषेक निर्बल पड़ते गये। कुछ पट्टे तो ऐसे भी लिखे गये, जिनमें नजराने का भी कोई उल्लेख न था। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि राणा कुछ सामन्तों को नजराने से भी मुक्त कर दिया था। इसी प्रकार विधान के और भी नियम हैं, जिनका पालन नये पट्टों में ठीक-ठीक न होने लगा। इस प्रकार नियम और विधान के विरुद्ध चलने से राणा की शक्तियाँ क्षीण पड़ गयी और सामन्त लोग मनमानी करने लगे। सिक्का चलाने का जो अधिकार सामन्तों को न था, उसका भी दुरुपयोग हुआ। कुछ इस प्रकार की बातों के कारण राणा की जो आर्थिक आय होती थी, वह भी नष्ट हो गयी। राज्य के प्रधान सामन्त अपनी व्यवस्था में राजा का अनकरण करते हैं। जिस प्रकार मंत्री से लेकर पनवाड़ी तक राजा के यहाँ कर्मचारी रहते हैं, उसी प्रकार प्रधान सामन्तों के यहाँ भी मंत्री से लेकर छोटे-छोटे कर्मचारी पाये जाते हैं। राजा की तरह उनके भी महल होते हैं और पूजा करने के लिए राजा की भाँति उन सामन्तों के अपने-अपने मंदिर होते हैं। राजा का अनुकरण करके उसी प्रकार श्रेष्ठ सामन्त गौरीशाला में प्रवेश करते हैं, गाने-बजाने वाले तुरंत खड़े होकर सामन्तों का अभिवादन करते हैं और उनकी जय-जयकार करते हैं। सामन्त के सिंहासन पर बैठ जाने के बाद सभी लोग अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार वहाँ पर बैठते हैं। सबसे पहले सामन्त के स्वास्थय के लिए ईश्वर से प्रार्थना की जाती है। बैठे हुए लोगों की ढालें जब परस्पर टकराती हैं तो उनके आघात से उठने वाली आवाज सामन्त के दरबार में गूंज उठती है। राजपूत - यूरोप के राज्यों की तरह मेवाड़ में सामन्तों के द्वारा राजा का हाथ चुम्बन करना अथवा राज्य भक्ति प्रदर्शित करने के लिए शपथ ग्रहण करने की प्रथा नहीं है। बल्कि जब कोई सामन्त नियुक्त किया जाता है तो राजा के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करने के लिए उसका यह कहना अथवा लिखना ही काफी होता है-“मैं आपका वालुक हूँ। मेरा सिर और मेरी तलवार आपकी है और मेरी सेवायें आपके आदेश पर निर्भर हैं।” राजपूतों के प्रति विश्वासघात की कल्पना नहीं की जा सकती। उनके त्याग और वलिदान की घटनायें अगणित हैं, उनमें से कुछ इन पृष्ठों में लिखी गयी हैं । राजपूतों के जीवन में अराजकता की भावना नहीं है। उनका सम्पूर्ण इतिहास राजभक्ति और देशभक्ति से भरा हुआ है। राजपूत जिन ग्रंथों का अध्ययन करते हैं, उनमें राजभक्ति को बहुत अधिक प्रोत्साहन दिया गया हैं। कवि चन्द ने स्वयं अपने प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ में राजभक्ति की श्रेष्ठता का अद्भुत वर्णन किया है। स्वाधीनता, राजभक्ति और वीरता राजपूतों का गौरव होकर रही है। राजपूतों को राजभक्ति की शिक्षा शैशवकाल से ही मिलती है। प्रत्येक राजपूत के जीवन में सबसे पहले राजभक्ति की भावना है, उसके बाद उसके जीवन का दूसरा सुख है । सामन्त जिस प्रकार अपनी राजभक्ति का परिचय अपने राजा को देते हैं, उसके सरदार उसी भावना से प्रेरित होकर अपना व्यवहार सामन्तों के प्रति प्रकट करते हैं। राजपूतों के साथ किसी दूसरी जाति की तुलना नहीं की जा सकती । इन राजपूतों ने भीषण दुर्भाग्य और अत्याचारों में अनेक शताब्दियाँ अपने जीवन की व्यतीत की हैं। परन्तु उनकी स्वाधीनता और स्वाभिमान की भावना में आज तक कोई अंतर नहीं पड़ा । राजपूतों ने अपना सब कुछ खोया है परन्तु अपने स्वाभिमान को नष्ट नहीं होने दिया । उनको अपना सम्मान बहुत प्रिय । अपमान को अनुभव करने की उनमें अद्भुत शक्ति पायी जाती है । जहाँ तक सम्मान का प्रश्न है, उसकी रक्षा के लिए आज भी एक राजपूत जीवन की छोटी-मोटी भूलों में युद्ध का एक मोर्चा कायम कर देता है और प्राण लेने और देने के लिए तैयार हो जाता है । एक राजपूत का यह चरित्र है,जो अनादि काल से उसके साथ चला आ रहा है। 95
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