- उसके विरोध में जब असंतोष पैदा हुआ तो प्राचीन विधान का संशोधन किया गया और नजराने को निर्धारित करके उसके देने का एक नियम बना दिया गया। उसका निर्णय सामन्त का पद प्राप्त करने वाले की मर्यादा के अनुसार किया गया। फ्रांस में अभिषेक हो जाने के बाद सामन्त को प्राचीन विधान के अनुसार अपने इलाके की एक वर्ष की पूरी मालगुजारी राजा को देनी पड़ती थी। यही अवस्था मेवाड़ राज्य की भी थी। सामन्त अपनी भूमि की एक वर्ष की मालगुजारी राणा को देता था। यह नियम उस राज्य में बहुत दिनों तक चलता रहा। मेवाड़ राज्य में जब किसी सामन्त की मृत्यु हो जाती है तो राणा उस सामन्त के स्थान पर काम करने के लिए जन्ती दल को भेजा करता है ।2 जब्ती लोगों का अध्यक्ष उस सामन्त के क्षेत्र में पहुँचकर राणा की तरफ से अधिकार कर लेता है। उस अध्यक्ष के साथ दीवानी का एक अधिकारी और कुछ सैनिक रहा करते हैं। राणा के आदमियों के द्वारा वहाँ पर अधिकार हो जाने पर जिस सामन्त की मृत्यु हो जाती उसका उत्तराधिकारी उस पद को प्राप्त करने के लिए राणा के पास प्रार्थना-पत्र भेजता है। उस प्रार्थना पत्र में नजराना देने की प्रतिज्ञा को साफ-साफ लिखना पड़ता है। प्रार्थना-पत्र के बाद नजराना राजा के पास पहुँच जाता है। उसके पश्चात् प्रार्थी राजा के दरबार में बुलाया जाता है । वह राजा के पास पहुँचकर अपने प्रार्थना-पत्र के अनुसार उस इलाके का, जिसके लिए उसने प्रार्थना पत्र भेजा है, सामन्त बनाये जाने के लिए निवेदन करता है। राणा उसे सनद देता है और पुरानी प्रथा के अनुसार उसका अभिषेक कार्य आरंभ होता है। नवीन सामन्त की कमर में एक तलवार बाँधी जाती है। मेवाड़ में यह अभिषेक बड़े उत्साह के साथ उत्सव के रूप में मनाया जाता है। उस उत्सव में राज्य के सभी सामन्त एकत्रित होते हैं। इस अभिषेक में नजराना पाने के बाद राणा उस नवीन सामन्त को घोड़ा, दुशाला और अन्य बहुमूल्य चीजें देकर सम्मानित करता है। जब इस अभिषेक का कार्य समाप्त हो जाता है तो जब्ती लोग उस इलाके से लौटकर राजधानी में आते हैं और नवीन सामन्त वहाँ का अधिकारी बन जाता है। उस दशा में वह सब से पहले अपने यहाँ के गुरूजनों का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उनके पास जाता है। इसके पश्चात् अभिषेक का कार्य समाप्त होता है । अभिषेक के समय नवीन सामन्त की कमर में तलवार वाँधने का उल्लेख ऊपर किया है। अभिषेक की प्रथा का यह एक नियम है। इस नियम का पालन राजपूतों में अन्य अवसरों पर भी होता है। जब कोई राजपूत वालक अस्त्र धारण करने योग्य हो जाता है, उस समय इसी प्रकार उसकी कमर में तलवार बाँध कर इस नियम का पालन किया जाता है और उत्सव मनाया जाता है। उस उत्सव का उद्देश्य यह होता है कि आज से यह राजपूत वालक अस्त्र धारण करने का अधिकारी समझा जाता है। राजपूतों में इस नियम को खड्गबंधी प्रथा के नाम से पुकारा जाता यह प्रथा राजपूतों का एक वीरोचित कार्य है। इस प्रकार के उत्सव के द्वारा राजपूत लोग अपनी संतान में शौर्य का संचार करते हैं। प्राचीन जर्मन लोगों में भी इसी प्रकार की प्रथा थी। वयस्क अवस्था में प्रवेश करते ही उनके वालक भाला धारण करते थे। रोम के अर्ल लोगों का उत्तराधिकारी, पिता का पद और उसकी जागीर को प्राप्त करने के लिए एक सौ पौंड देता था । वैरन लोगों का उत्तराधिकारी एक सौ मार्क और नाइट लोगों का उत्तराधिकारी एक सौ शिलिंग नजराने किसी सामन्त के मर जाने पर उसके अधिकृत क्षेत्र पर राणा का अधिकार कायम करने के लिए जो लोग 1. में देता था। 2. 84
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