अध्याय-9 राजस्थान में जागीरदारी प्रथा-2 1 इस परिच्छेद में जागीरदारी प्रथा के सम्बंध में उन घटनाओं और परिस्थितियों का विस्तार से उल्लेख किया जायेगा, जिन पर अभी तक कुछ नहीं लिखा गया। साथ ही इस बात पर भी प्रकाश डालेंगे कि उनके सम्बंध में यूरोप के राज्यों में किस प्रकार की प्रथा थी और राजस्थान के राज्यों के साथ उनकी कहाँ तक समानता है। जिन घटनाओं के सम्बंध में हम यहाँ पर लिखने जा रहे हैं, उनमें छह प्रमुख हैं और वे इस प्रकार हैं - (1) नजराना (2) जागीर का हस्तान्तरित होना (3) पुत्रहीन सामन्त के मरने पर उसको जागीर का अधिकार (4) धन की सहायता (5) नाबालिग सामन्त की रक्षा (6) विवाह। नजराना - जागीरदारी प्रथा की उपयोगिता और श्रेष्ठता नजराने पर निर्भर होती है। नजराना ही राजा की शक्ति है । सामन्त की राजभक्ति है। जिस राज्य में इसका भली प्रकार पालन होता है, उस राज्य की शासन-व्यवस्था सुचारू रूप से चलनी चाहिए। इसके अनुसार राज्य की तरफ से सामन्त को भूमि दी जाती है और उसके बदले में अपने अन्यान्य कर्त्तव्यों के पालन के साथ-साथ सामन्त अपने राजा को एक निर्धारित नजराना देता रहता है। यदि संयोग से किसी सामंत की मृत्यु हो जाती है तो उसका उत्तराधिकारी राजा के सामने प्रार्थना पत्र उपस्थित करके और उतना ही नजराना देने की प्रतिज्ञा करके सामन्त का पद प्राप्त करता है। मेवाड़ राज्य में नियम यह है कि जब एक स्वत्वाधिकारी का अधिकार समाप्त हो जाता है तो उस जागीर पर दूसरा अधिकारी स्वीकार करना राजा के अधिकार में होता है । यूरोप की प्रथा के अनुसार सामन्त का पुत्र, पिता का नजराना राजा को देकर जागीर का अधिकारी हो जाता है। उसका पूर्ण वयस्क होना आवश्यक होता है। नजराना पाकर राजा उसे सामन्त का पद दे देता है। वास्तव में नजराना निर्धारित करना राजा के अधिकार में नहीं था। वह सामन्त की इच्छा पर निर्भर होता था। जिसके लिए राजा यूरोप के राज्यों में सामन्त को विवश नहीं कर सकता था और वहाँ की जागीरदारी प्रथा का यही विधान भी था। लेकिन जब राजा नजराना निर्धारित करके उसकी अदायगी के लिए सामन्त को वाध्य करने लगा तो वहाँ पर भीषण असंतोष पैदा हुआ। सामन्त शासन-प्रणाली में नजराने का बंधन यूरोप के राज्यों में नहीं था। उसे सामन्तों की इच्छा पर छोड़ दिया गया था। नजराना निर्धारित करने का अर्थ उसे एक प्रकार का कर बना देना होता है और यह नजराना किसी कर के रूप में नहीं माना गया था। इसलिए 83
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