के साथ युद्ध किया और मुस्लिम सैनिकों का संहार करके अपने स्वामी का शव दुर्ग के ऊपर रखा । उसी सयम समस्त चूण्डावत सैनिकों की एक साथ आवाज हुई थी। “अन्तला दुर्ग के विजयी चूण्डावत-हरावल के अधिकारी चूण्डावत ।” 1 वंशगत संगठन किसी भी देश और राज्य के लिए कल्याणकारी नहीं होते। इस प्रकार की प्रतिद्वन्दिता से सदा राज्यों का पतन हुआ है। शक्तावतों और चूण्डावतों के आपसी द्वेष की घटना का जो उदाहरण ऊपर दिया गया है, राजस्थान के इतिहास में यह घटना अकेली नहीं है । बल्कि सम्पूर्ण राजस्थान का इतिहास इस प्रकार की घटनाओं से भरा हुआ है। मेवाड़ का इतिहास पढ़कर कोई भी व्यक्ति यह कह सकता है कि अगर वहाँ पर शक्तावतों और चूण्डावतों लोगों में आपस की यह प्रतिद्वन्दिता न होती तो मेवाड़ राज्य का इतने बुरे तरीके से पतन न होता, जिस तरीके से हुआ। चूण्डावतों लोगों की अपेक्षा शक्तावत लोग संख्या में बहुत कम है। परन्तु वे अधिक साहसी और पराक्रमी हैं। दोनों वंश के लोग मेवाड़ राज्य के प्रमुख योद्धा थे। उनकी पारस्परिक ईर्ष्या ने राज्य को निर्वल बना दिया था। यह वात सही है कि. भारत के विभिन्न राज्यों में बहुत समय पहले से सामन्त शासन-प्रणाली रही है। इस प्रणाली की अच्छाइयाँ सहज ही बिगड़ जाती हैं। इस देश में जब तक यह प्रणाली सही रूप में चली और राज्य में एक केन्द्रीय शक्ति काम करती रही, उस समय तक उस राज्य का शासन कार्य उत्तम तरीके से चलता रहा। लेकिन केन्द्रीय शक्ति के शिथिल पड़ने पर अथवा सामन्तों के अनुशासन भंग करने पर सामन्त शासन प्रणाली का मूल सिद्धांत निर्वल पड़ जाता है। उस दशा में यह प्रणाली किसी भी राज्य के लिये कल्याणकारी सावित नहीं होती। राजस्थान के राजाओं को मुगल शासन की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी थी, जो नाममात्र को थी। मुगल सम्राट की दी हुई सनद के बाद अधीन राजा अपने राज्य का कार्य संचालन करते थे। जितने राजाओं ने मुगलों की अधीनता स्वीकार की थी, सभी को यही करना पड़ा था। दिल्ली के सम्राट ने सभी को सनद दिये थे। सनद प्राप्त करने वाले राजाओं ने मुगल सम्राट को अपना स्वामी स्वीकार कर लिया था। सनद देने के समय सम्राट राजाओं को हाथी, घोड़ा, मूल्यवान वस्त्र और वहुमूल्य आभूषण भेंट में देकर उनका सम्मान करता था। अधीन राजा लोग सम्राट को अपने राज्य की तरफ से एक निश्चित धनराशी नजराने के तौर पर दिया करते थे। इस अधीनता के लिये सम्राट और राजाओं के बीच एक संधि-पत्र लिखा जाता था और उसके अनुसार सम्राट के बुलाने पर अधीन राजाओं को एक निर्धारित संख्या में सेना को लेकर सम्राट के यहाँ उपस्थित होना पड़ता था। मुगल सम्राट अपने प्रत्येक अधीन राजा चंदावत वंश की महावली शाखा में मंगावत का एक कवि अमर मेरा मित्र था। संगावत लोंग देवगढ़ के सामन्त के अधिकार में रहा करते थे। देवगढ़ का सामन्त दो हजार सैनिकों का मालिक था। संगावत अमर ने अंतला दुर्ग की विजय के सम्बंध में एक बड़ी अच्छी घटना मुझे सुनायी थी । उसने बताया था कि जिस समय राजपूत सेना ने अंतला के दुर्ग पर आक्रमण किया था, मुस्लिम सेना के दो अधिकारी दुर्ग के भीतर जुआ खेल रहे थे। उन्होंने सुना कि दुर्ग पर राजपूतों ने आक्रमण किया है लेकिन उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह समझ कर कि विजय तो हम लोगों की होगी ही वे दोनों जुआ खेलने में दत्तचित बने रहे। उनका ध्यान युद्ध की तरफ नहीं गया । जिस समय राजपूत दुर्ग के ऊपर पहुँच गये, उनका जुआ बंद हुआ। ठसी समय कुछ राजपूतों ने कमरे में घुसकर खेलने वाले दोनों मुस्लिम सरदारों को घेर लिया। इस दशा में भी एक मुस्लिम सरदार ने प्रार्थना की कि हमारा खेल खत्म होने वाला है। परन्तु उसकी प्रार्थना पर राजपूतों ने ध्यान नहीं दिया। दोनों वंशों के नेता मारे जा चुके थे। इसलिए राजपूतों ने उन दोनों को वहीं पर मार 1. डाला। 78
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