राज पताका पाँच रंग की होती है। चन्देरी नाम के एक छोटे राज्य की पताका पर प्रमत्त सिंह की आकृति अंकित रहती है। ईसा के जन्म से बहुत पहले भारत में महाभारत का युद्ध हुआ था। उस समय अर्जुन की पताका में हनुमान की मूर्ति अंकित रहती थी। इसका समर्थन हिन्दुओं के प्रसिद्ध ग्रंप महाभारत के द्वारा होता है। राजपूतों के महलों में उनके वंश के देवता की मूर्ति रहा करती है। राजपूत लोग अपने वंश के उस देवता की मूर्ति को साथ में लेकर युद्ध में जाते थे। राजा उस मूर्ति को अपने साथ लेकर घोड़े पर सवार होता था। कोटा के राजा भोमर ने युर के समय अपने देवता के साथ-साथ अपने प्राणों का बलिदान किया था। खींची जाति के सरदार स्वर्गीय जयसिंह की भी यही दशा थी। अपने देवता को साथ लेकर ही वह युद्ध में जाता था 12 युद्ध में अपने वंश के देवता को ले जाने का आम रिवाज हिन्दु राजाओं में था। यूनान के बादशाह सिकन्दर ने जब भारत में आक्रमण किया था, उन दिनों में जितने देश के राजा उसके साथ युद्ध करने गये थे, सभी अपने-अपने वंश के देवता को साथ ले गये थे। कुछ राजाओं ने अपनी सेना के आगे कुल देवता को रखकर युद्ध आरंभ किया था। सिंध नदी के पश्चिमी पहाड़ी प्रदेश में जिस समय युद्ध हुआ था, उसके बहुत पहले युधिष्ठिर को राजपताका के नीचे बहुत से मुसलमान एकत्रित हुये थे। पराक्रमी विशाल देव का नाम दिल्ली के विजय स्तंभों पर खुदा हुआ है। वह यवन सेना के साथ युद्ध करने के लिये जो अपनी सेना ले गया था, उसम चौरासी हिन्दू राजाओं की पताकायें थीं। इस युद्ध में शामिल होने के लिये विशाल देव ने बहुत से राजाओं को निमंत्रण पत्र भेजा था। प्रसिद्ध चन्द कवि ने अपने ग्रंथ में उस युद्ध की बहुत-सी बातें लिखी है। कवि चन्द ने अपने ग्रंथ में पृथ्वीराज के शासन की सामन्त प्रणाली का खूब वर्णन किया है। राजस्थान में प्रचलित सामाजिक नियमों के अनुसार जिनका जन्म विशुद्ध राजपूत वंश में हुआ है, उन्हीं को मेवाड़ राज्य में सामन्त होने का अधिकार है। इस राज्य के जितने भी सामन्त अब तक बने थे, सभी के साथ इस नियम की पाबंदी की गयी थी। मेवाड़ राज्य में वंश की श्रेष्ठता को बहुत महत्त्व दिया जाता था। राज्य के कार्यों में राजपूतों के सिवा दूसरे लोग भी नियुक्त किये जाते थे और उसमें जिनको गुजारे के लिये भूमि दी जाती थी, उस पर उनका पैतृक अधिकार नहीं होता था। पाने वाला जब तक राज्य का काम करता था, उस समय तक वह उस भूमि का अधिकारी माना जाता था। यूरोप के देशों में राज्य के प्रमुख कर्मचारियों को भूमि अथवा कुछ गाँवों का इलाका दिया जाता था। उसी प्रकार राजस्थान के राज्यों में भी राज्य के प्रधानं कर्मचारियों को भूमि अथवा इलाका देने की परिपाटी थी। इस परिपाटी का एक कारण था। उन दिनों में सिक्के का प्रचार न हुआ था। उस दशा में वेतन देने में बड़ी असुविधा होती थी। इस उलझन से बचने के लिये प्राचीनकाल में राजकर्मचारियों को उनके पदों के अनुसार भूमि अथवा इलाका दिया जाता था। 1. इस राज्य का सम्पूर्ण भाग जंगलों से घिरा हुआ है। यूरोप के लोगों में में सबसे पहले में ही सन् 1805 ईसवी में वहाँ गया था। उस यात्रा में मुझे भयानक कष्ट भोगने पड़े थे। उन दिनों में यह राज्य स्वतंत्र था। उसके तीन वर्ष बाद इस राज्य पर सिन्ध्यिा ने अपना अधिकार कर लिया था। 2. खींची चौहान राजपूत वंश की एक शाखा है। हाड़ावती के पूर्व की तरफ इस वंश के लोगों का राज्य था। 68
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