अपरिचित नहीं हूँ। इसलिए मैं उस पर विश्वास नहीं करता और जो प्रमाण निर्विवाद हैं, उन्हीं का आधार लेकर लिखना चाहता हूँ। जो असभ्य जातियाँ किसी एक स्थान पर न रहकर सदा जंगलों में इधर-उधर घूमा करती हैं, उनमें भी कुछ शासन सम्बंधी बातें होती हैं और उनके शासन की अनेक बातें सभ्य जातियों के शासन के साथ मिलती जुलती हैं। संसार के सभी देशों के मनुष्यों का जीवन किसी समय एक सा रहा है और समस्त प्राचीन जातियों में प्रचलित शासन की मूल बातों में अभिन्नता रही है। यूरोप के सभी देशों में जागीरदारी प्रथा का प्रचार किसी समय था और काकेशस पर्वत से लेकर हिन्द महासागर तक वह प्रथा फैली हुई थी। बर्बर, तातारों, जर्मन और कलीडोनिअन जातियों, झारिजा लोगों और राजपूतों में जागीरदारी प्रथा का प्रचार था। उसकी प्रमुख बातें एक दूसरे के साथ बिल्कुल मिलती थीं। युगों के बाद इन प्रथाओं में कहाँ क्या अंतर पड़ा? इसके अनुसंधान के लिए बहुत परिश्रम की आवश्यकता है। लगातार आक्रमणों और अत्याचारों ने राजस्थान की परिस्थितियों को बहुत बिगाड़ दिया है, फिर भी उसकी प्राचीनता और मौलिकता की खोज की जा सकती है, जो इस प्रथा के इतिहास में बहुत महत्त्वपूर्ण साबित होगी। मराठों की लूटमार और मुस्लिम अत्याचारों ने राजपूत राज्यों का बहुत विनाश किया है। उनकी राष्ट्रीय भावनायें मिट गयी हैं और उनके पुराने संग्रह इन दिनों में अप्राप्य अवस्था में हैं। राजपूत राज्यों का फिर से संगठन बनने की आवश्यकता है और उनकी सभी बातों का नया निर्माण होना चाहिये। राजपूत फिर शक्तिशाली बनाये जा सकते हैं। उनका सामाजिक जीवन परिवर्तन चाहता है। राजस्थान की इस समय अवस्था अच्छी नहीं है, उसकी श्रृंखला टूट गयी है। शासन की उपयोगिता खत्म हो गयी है। उनके वर्तमान श्रृंखलाहीन सामाजिक और राजनीतिक जीवन को देखकर कोई आज प्रभावित नहीं हो सकता। विदेशी लोग उसकी आलोचना कर सकते हैं, क्योंकि उनको यहाँ की प्राचीन शासन-व्यवस्था को समझने और जानने का अवसर नहीं मिला। बाहरी लोगों की इन आलोचनाओं से इस देश के प्राचीन इतिहास का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। एक इतिहासकार को किसी देश का इतिहास जानने के लिए बड़ी ईमानदारी से काम लेना चाहिए और गंभीर नेत्रों से उसकी प्राचीनता की खोज करनी चाहिए। बाहरी जातियों के भीषण आक्रमणों और अत्याचारों में जिस देश ने एक हजार वर्ष व्यतीत किये हैं, वह देश किस प्रकार जर्जरित और नष्ट प्राय हो सकता है, इसका अनुमान एक विद्वान, इतिहासकार आसानी के साथ लगा सकता है। राजस्थान की शासन-व्यवस्था का आधार, उसकी जागीरदारी प्रथा थी और यह प्रथा प्राचीन काल में यूरोप की जागीरदारी प्रथा के समान थी। उसकी श्रेष्ठता बहुत समय तक कायम रही और बाहरी संगठित जातियों के लगातार अत्याचारों तक छिन्न-भिन्न नहीं हो सकी। भारत का प्राचीन गौरव इस शासन-व्यवस्था की श्रेष्ठता का ऐसा प्रमाण है, जिससे कोई निष्पक्ष और बुद्धिमान इंकार नहीं कर सकता। मध्यकालीन युग के यूरोप के साथ राजस्थान की तुलना करके यह लिखना आवश्यक नहीं है कि आचारों, विचारों और जीवन के सिद्धांतों में किस देश ने किस देश से क्या सीखा। आवश्यकता के अनुसार सभी देशों को एक दूसरे से अच्छी बातें लेनी पड़ी और ऐसा होना स्वाभाविक ही हैं। जो व्यवस्था किसी एक देश में आरंभ होती है, वह निश्चित रूप से दूसरे देशों में फैलती है और अनुकूल वातावरण पाकर विकसित होती है। जागीरदारी की प्रथा इंगलैंड में नार्मन लोगों से पहुंची थी और नार्मन लोगों ने इस प्रथा को स्कैंडीनेविया से पाया था। स्कैंडीनेविया ने दूसरी जातियों से इसको प्राप्त किया था। 64
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