की दो प्रमुख शाखायें थीं। इन दोनों शाखाओं के कुछ लोग लूनी नदी के दोनों किनारों पर पाये जाते हैं। चावड़ा अथवा चावरा वंश के लोग किसी समय इस देश में प्रसिद्ध थे। लेकिन अब ठनका अस्तित्व मिटता जा रहा है। उनकी उत्पत्ति का कोई उल्लेख हमें नहीं मिला। सूर्यवंश और चंद्रवंश के साथ उनका कोई सम्बंध नहीं है। ऐसी दशा में सीथियन लोगों से उनकी उत्पत्ति का अनुमान किया जा सकता है। इस वंश के लोगों का उत्तरी भारत में कोई स्थान नहीं है। यह भी हो सकता है कि ये लोग वाहर से इस देश में आये हों। यदि ऐसा है तो भी उनके आने का समय बहुत पहले प्राचीन काल में नहीं होना चाहिये। इसलिये कि मेवाड़ के सूर्यवंशी वर्तमान राज-परिवारों के साथ इस वंश के लोगों के सामाजिक और वैवाहिक सम्बंध बहुत समय से देखने में आते हैं। चावड़ों की राजधानी सौराष्ट्र के समुद्री किनारे के पास दीव वंदर के टापू में थी। इस वात के उल्लेख पाये जाते हैं कि दीव के राजा ने सन् 746 ईसवी में अनहिलवाड़ा पट्टन की नींव डाली, जो उस समय भारत के इस हिस्से का एक प्रमुख नगर बना । चावड़ा वंश के कुछ उल्लेख पुराने ग्रंथों में मिलते हैं। मेवाड़ के इतिहास में बताया है कि मुसलमानों के पहले आक्रमण से चित्तौड़ को बचाने के लिये चतनसी नाम का एक चावड़ा सरदार एक सेना के साथ युद्ध के लिये गया था। मनमूद गजनवी ने जब सौराष्ट्र पर आक्रमण करके उसको राजधानी अनहिलवाड़ा को अपने अधिकार में कर लिया तो उसने वहाँ के राजा को गद्दी से उतार दिया और उसके स्थान पर वहाँ के एक प्राचीन परिवार के राजा को सिंहासन पर बैठाया, जिसका नाम दावशिलिम था । मिले हुये लेखों से यह भी मालूम होता है कि डावी एक वंश की शाखा थी, जिसको बहुत से लोग चावड़ा के अंतर्गत मानते हैं। सूयवंशी रानाओं और सौराष्ट्र के चावड़ों तथा सौरों का सम्वन्ध एक हजार वर्ष वीत जाने के बाद भी कायम । राणा-परिवार राजस्थान में बहुत सम्मानपूर्ण माना जाता है और चावड़ा वंश गिरी हुई अवस्था में है। फिर भी इस वंश की कन्या राणा परिवारों में जाती हैं। इस बात के और भी उदाहरण हैं। टांक अथवा तक्षक- बहुत खोजने के वाद नाहिर होता है कि तक्षकवंश उस जाति का नाम है, जिससे प्राचीन काल में भारत के आक्रमणकारी विभिन्न सीथियन वंशों को उत्पत्ति हुई थी । तक्षकवंश नेटी जाति की अपेक्षा-निससे अगणित शाखाओं की उत्पत्ति हुई अधिक प्राचीन है। इन दोनों जातियों के सम्बंध एक-दूसरे के इतने नजदीक हैं कि दोनों को एक दूसरे से अलग करना बहुत कठिन है । अवुलगाजी ने तांनक को तुर्क और तगेंताई का वेटा माना है जो पुराणों में तुरक के नाम से लिखा गया है और चीनी ग्रंथों में उसी को तक्युक्स नाम दिया गया है, जो चोटरी जाति से उत्पन्न हुआ मालूम होता है, जिसने यूनान के अंतर्गत वाकट्रिया के राज्य का सर्वनाश करने में मदद पहुँचायी थी। इस चोटरी जाति के नाम से ही एशिया के एक विशाल भाग का नाम चोटरिस्तान पड़ा। यही आगे चलकर तुर्किस्तान बना ! ताजक जाति जिसका वर्णन एलफिन्स्टन साहव ने अपनी पुस्तक कावुल-राज के वृतान्त में खूव किया है-वास्तव में तक्षक वंशी थी ऐसा मालूम होता है कि ये दो नाम एक ही जाति के हैं। इस बात का वर्णन पहले किया जा चुका है कि राजस्थान के अनेक भागों मे तुस्टा, तक्षक और टाँक जाति के पाली अथवा वौद्ध अक्षरों में प्राचीन शिला लेख मिले हैं, जो 54
पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/५४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।