है। नील गाय और हिरण भी यहाँ वहुत मिलते हैं। बीकानेर के जंगलों में शेर पाये जाते हैं। भैंसों, बकरियों और गायों के दूध से घी अधिक मात्रा में तैयार होता है। उनकी विक्री करके यहाँ के लोग बहुत लाभ उठाते हैं। लोहे की चीजें- लोहे की बनी हुई चीजें बीकानेर की बहुत प्रसिद्ध हैं। राज्य के प्रमुख नगरों में लोहे के कारखाने हैं। उनमें छोटे-बड़े चाकुओं से लेकर तलवारें, भाले और बन्दूकें तैयार की जाती हैं। यहाँ के कारीगर हाथी दाँत की बहुत-सी चीजें तैयार करते हैं। वे स्त्रियों के लिए उनकी चूड़ियाँ और कड़े भी बनाते हैं। राज्य में साधारण श्रेणी का कपड़ा भी तैयार होता है, जो स्त्रियों और पुरुषों के पहनने में काम आता है। मेले-कोलाद और गजनेर नामक नगरों में मेले लगते हैं। कार्तिक और फाल्गुन के महीनों में ये मेले वर्ष में दो बार हुआ करते हैं। उनमें अनेक प्रकार के व्यवसायी आते हैं और छोटी-मोटी बहुत-सी चीजों के सिवा ऊँटों, गायों के साथ-साथ मुलतान और लक्खी जंगल के प्रसिद्ध घोड़े बिकते हैं। राज्य के ये मेले पहले बहुत प्रसिद्ध थे। लेकिन उनका वह गौरव अब नहीं रह गया। राज्य के कर-बीकानेर में पहले कई प्रकार के कर वसूल किये जाते थे। परन्तु उनमें भूमि का कर, खेती का कर और अपराधियों से लिया जाने वाला कर-राज्य के तीन प्रमुख कर थे और उनसे राजा को पाँच लाख रुपये से अधिक की आमदनी नहीं होती थी। बीकानेर के सामन्तों के अधिकार में अन्य राज्यों के सामन्तों की अपेक्षा अधिक भूमि है। इसका कारण यह है कि बीदावत और कांधलोत लोगों ने अपने अधिकार की भूमि पर स्वतंत्र शासन कर रखा था। उन दोनों वंशों के अधिकारियों की भूमि को यदि एक में मिला दिया जाए तो वह मिली हुई भूमि बीकानेर राज्य की शेप सम्पूर्ण भूमि से अधिक हो जाती है। इन दोनों वंशों ने बीकानेर के राजा को कर कभी नहीं दिया। केवल सम्मान के लिए वे लोग राजा का गौरव स्वीकार करते थे। राजगढ़, रेनी, नोहर, गारा, रतनगढ़ और चुरू की भूमि राजा के अधिकार में है। चुरू का अधिकार अभी थोड़े दिन पहले राजा के हाथ में आया है। राज्य में छ: प्रकार के कर वसूल किये जाते हैं-(1) खालसा भूमि कर (2) धुआँ का कर (3) अंग कर (4) चुंगी और यातायात का कर (5) कृपि का कर और (6) मालवा का कर। 1. खालसा भूमि कर-इस कर से राज्य को पहले दो लाख रुपये वार्पिक की आमदनी होती थी। परन्तु अच्छे शासन के अभाव में राज्य के कितने ही नगर और ग्राम बरबाद हो गये हैं। खालसा भूमि के ग्रामों की संख्या पहले दो सौ थी परन्तु अब उनकी संख्या अस्सी से अधिक नहीं है और इन अस्सी ग्रामों से राजा को जो आय होती है, वह एक लाख रुपये से अधिक नहीं होती। इस हानि का बहुत-कुछ कारण राजा सूरतसिंह था। उसने राज्य की भूमि लोगों को देने में बुद्धि से काम नहीं लिया। किसको देना चाहिए और किसको नहीं- कितनी भूमि देनी चाहिए और कितनी न देनी चाहिए, यह विचार सूरत सिंह ने कभी नहीं किया। जिसको जितनी भूमि न देनी चाहिए, उसको उतनी दे दी। इसका परिणाम यह हुआ कि राज्य 558
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