बख्तावरसिंह के सम्बन्ध में सूरतसिंह की धारणा पहले से ही अच्छी न थी। वह बख्तावरसिंह को अपना विरोधी समझता था। बालक प्रतापसिंह के सम्बन्ध में जो विश्वासघात सूरतसिंह के. हृदय में छिपा हुआ था, उसके प्रकट हो जाने से राज्य के अनेक सामन्तों में विद्रोहात्मक भावनायें उठने लगीं। सूरतसिंह इन परिस्थितियों से अपरिचित न रहा। आने वाली भयानक परिस्थितियों की कल्पना करके सूरतसिंह ने बीकानेर के सामन्तों के पास आदेश भेज कर उनको राजधानी में बुलाया। लेकिन महाजन और भादराँ के दोनों सामन्तों के सिवाय अन्य कोई भी सामन्त राजधानी में नहीं आया। भेजे हुए आदेश का सामन्तों के द्वारा पालन न करने पर सूरतसिंह बहुत क्रोधित हुआ और वह अपने साथ एक सेना लेकर आज्ञा-पालन न करने वालों सामन्तों का दमन करने के लिए राजधानी से रवाना हुआ। नौहर नामक स्थान पर पहुँचकर सूरतसिंह ने भूखर के सामन्त को अपने पास बुलवाया और उसको कैद करके नौहर के दुर्ग में बन्द करवा दिया। इसके बाद उसने अजितपुर नामक स्थान पर लूट की और साँखू नामक स्थान पर आक्रमण किया। वहाँ के सामन्त दुर्जनसिंह ने सूरतसिंह का सामना किया। लेकिन बीकानेर की सेना के साथ युद्ध करने के लिए उसके पास सेना काफी न थी। इसलिए पराजित होने की अवस्था में आत्मघात करके वह मर गया। साँखू में विजयी होने के बाद सूरतसिंह ने दुर्जनसिंह के लड़कों से बारह हजार रुपये लिए। इसके बाद उसने अपनी सेना के साथ साँखू से चलकर राज्य के प्रसिद्ध व्यावसायिक नगर चूरू को घेर लिया और छः महीने तक वह उस नगर को घेरे पड़ा रहा। लेकिन उसको सफलता न मिली। भूखर के जिन सामन्तों को कैद करके सूरतसिंह ने नौहर के दुर्ग में रखा था, वे बीकानेर राज्य के सामन्तों में शक्तिशाली सामन्त माने जाते थे। उनको इस बात की चिन्ता होने लगी कि सूरतसिंह राज्य के सभी सामन्तों के साथ इस प्रकार अलग-अलग दुर्व्यवहार करेगा सामन्त कुछ न कर सकेंगे। इसलिए वे सूरतसिंह को बीकानेर के सिंहासन पर बिठाने के लिए ही गये और उनके तैयार हो जाने पर कुछ दूसरे सामन्तों ने भी सूरतसिंह के पक्ष में अपनी सम्मति दे दी। इसके लिए एक कागज लिखा गया। उस पर उन सामन्तों के हस्ताक्षर हो गये, इसके बाद जिन सामन्तों को सूरतसिंह ने कैद करवाया था, उनको छोड़ दिया गया और दो लाख रुपये लेकर सूरतसिंह अपनी सेना के साथ चूरू नगर से लौट आया। सूरतसिंह ने राज्य के कितने ही सामन्तों के साथ इस प्रकार का अत्याचार करके उनको अपने अनुकूल बना लिया। उसके बाद वह अपनी राजधानी लौट आया। अब उसको सामन्तों के विरोध का डर न रहा था। इसलिए निर्भीक होकर वह बालक प्रतापसिंह की हत्या का, उपाय सोचने लगा। इसी बीच में उसको मालूम हुआ कि बालक प्रतापसिंह की रक्षा का भार हमारी बहन के हाथ में है। उसकी बहन बुद्धिमती और शीलवती थी। वह किसी प्रकार इस बात को नहीं चाहती थी कि बालक प्रतापसिंह की हत्या की जाये। इसके लिए उसको अपने भाई सूरतसिंह से पूरी तौर पर आशंका थी। वह समझती थी कि सूरतसिंह के द्वारा इस बालक के प्राण खतरे में हैं। इसलिए वह राजकुमारी उस बालक को सदा अपने पास रखती थी और एक क्षण के लिए भी वह उसको अपने पास से अलग न होने देती थी। 544
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