मारवाड़ राज्य में शासन और राज्य की रक्षा के लिये वैतनिक सेना रखनी पड़ी थी। इस देश में राठौड़ राजपूत अधिक साहसी और शूरवीर माने जाते थे। मारवाड़ राज्य के कई नगरों में घोड़ों का मेला लगता था । बालोतरा और पुष्कर के मेले में कच्छ, काठियावाड़, मुलतान और अन्य दूरवर्ती स्थानों से उत्तम श्रेणी के घोड़े बिकने के लिए आते थे। मारवाड़ की पश्चिमी सीमा के लूनी नदी के किनारे बसने वाले ग्रामों और नगरों में बहुत अच्छे घोड़े पाये जाते थे। उनमें राडधरा के घोड़े सर्वश्रेष्ठ माने जाते थे। परन्तु पिछले बीस वर्षों से इस राज्य की राजनीतिक परिस्थितियाँ बहुत वदल गयी हैं। अन्य व्यवसायों के साथ-साथ घोड़ों का व्यवसाय भी वहुत निर्वल पड़ गया । इसलिए घोड़ों की संख्या में अब बहुत कमी हो गयी है। सिंध नदी के पश्चिमी भाग से जो घोड़े पहले आते थे, उनमें अव वहुत कमी हो गयी है। लूट-मार के दिनों में सैनिकों को घोड़ों की अधिक आवश्यकता रहती थी इसलिए वे अधिक संख्या में बिकने के लिए बाहर से आते थे और वे खरीदे जाते थे। इन दिनों में मारवाड़ की राजनीतिक परिस्थितियाँ बिल्कुल बदल गयी हैं। यहाँ पर अव कोई बाहरी आक्रमण नहीं होता। लूटमार भी बिल्कुल बन्द हो गयी है। इसलिए घोड़ों की आवश्यकतायें भी पहले की सी नहीं रह गयीं। आक्रमणकारियों के भयानक अत्याचारों के समय जो राठौर सेना युद्ध करती थी, उसमें चार हजार राठौड़ सैनिक सवार होते थे। सैनिक सवारों की संख्या चम्पावत वंश के राजपूतों में अधिक थी। परन्तु मारवाड़ की दुरवस्था के दिनों में उनकी संख्या अधिक नहीं पायी गयी। उन दिनों में राठौड़ों के मुकाबले में चम्पावत राजपूतों ने अपनी राजभक्ति का अधिक परिचय नहीं दिया। राठौरों की सेना के प्रत्येक सैनिक को जो भूमि वेतन के स्थान पर दी जाती थी, उसकी आमदनी पाँच सौ रुपये वार्षिक की होती थी। मिट्टी-मारवाड़ में जहाँ खेती होती है, वहाँ की मिट्टी चार तरह की पायी जाती है। वैकलू, चिकनी, पीली और सफेद । वैकलू मिट्टी राज्य के अधिकांश भागों में पायी जाती है। इस मिट्टी में रेत का भाग अधिक रहता है। इसमें केवल बाजरा, मूंग, मटर, तिल और ज्वार आदि अनाजों की पैदावार होती है। इसमें खरबूजा भी पैदा होता है । चिकनी मिट्टी का रंग काला होता है। यह मिट्टी डीडवाना, मेड़ता, पाली और गोडवाड में पायी जाती है। इस मिट्टी में गेहूँ और इस श्रेणी के दूसरे अनाज पैदा होते हैं। पीली मिट्टी का रंग हल्दी की तरह है। इसमें बालू मिला हुआ है। यह मिट्टी बनसर, जोधुपुर, जालौर, बालोतरा और कुछ अन्य स्थानों में पायी जाती है । इस मिट्टी में जौ, कोकना, गेहूँ, तम्बाकू, प्याज और कई प्रकार के शाक पैदा हाते हैं। सफेद रंग की मिट्टी में खेती नहीं होती। अधिक वर्षा के बाद कुछ थोड़ी पैदावार हो जाती है। लेकिन उसी दशा में,जब वर्षा बहुत अधिक होती है, बाजरा भी बहुत कम होता है। लूनी नदी के दक्षिणी किनारे पाली, सोजत और गोडवाड आदि स्थानों की मिट्टी नदियों के प्रवाह के द्वारा पहाड़ के ऊपर से बहकर आती है। यह मिट्टी अधिक उपजाऊ होती है। उस मिट्टी में वाजारे के सिवा सभी प्रकार के अनाज अधिक पैदा होते हैं। नागौर और मेड़ता में कुओं के जल से खेती होती है और उसमें अच्छी श्रेणी के अनाज पैदा होते हैं। पश्चिमी भाग में ग्रामों और नगरों की संख्या पाँच सौ दस है। जालौर, साँचोर और भीनमाल के विशाल नगरों की विस्तृत भूमि का अधिकारी राजा होता है। वहाँ की मिट्टी के लिये सबसे अच्छी समझी जाती है। यहाँ की मिट्टी नदियों के द्वारा पहाड़ों से वहकर आयी है और इसलिए वह अधिक उपजाऊ हो गयी है। वहाँ की भूमि में बहुत अच्छी पैदावार हुआ करती थी। लेकिन राजा मानसिंह के शासनकाल में वह उपज घटकर एक तिहाई भी न रह गयी थी। इस भूमि के नगर और ग्राम अधिक उपजाऊ होने के कारण 519
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