अध्याय-7 छत्तीस राजवंश व उनकी शाखाएँ राम और कृष्ण के वंशज राजस्थान के सभी राजवंश छत्तीस भागों में विभाजित माने जाते हैं। इन वंशों की नामावली और उनके विवरण उन साधनों के द्वारा प्राप्त किये गये हैं, जिनके सम्बंध में अधिक विश्वास किया जा सकता है और उनसे अधिक विश्वस्त साधन कोई दूसरा संभव नहीं था। राजस्थान के जिन छत्तीस राजवंशों का हम इतिहास लिखने जा रहे हैं, वे बहुत-सी शाखाओं अर्थात् उपवंशों में विभाजित हैं और ये शाखायें अगणित प्रशाखाओं अर्थात् गोत्रों में बदल गयी । उनकी संख्या बहुत अधिक है, इसलिये जो अधिक प्रसिद्ध हैं, उन्हीं के विवरण यहाँ पर दिये गये हैं। इन राजवंशों में कुछ वंश ऐसे भी हैं, जिनकी शाखायें नहीं हैं और उनकी संख्या लगभग एक तिहाई है। उनके साथ-साथ चौरासी व्यावसायिक जातियों की नामावली भी यहां पर दी गयी है, जो विशेषकर राजपूतों की ही शाखायें हैं और इस सूची में उन जातियों के भी विवरण हैं,जो आदि काल में खेती का काम करती थीं अथवा पशुओं के द्वारा अपना जीवन-निर्वाह करती थीं। आरंभ में सूर्य और चन्द्र-दो ही वंश थे। बाद में चार अग्निवंश वालों के मिल जाने से उनकी संख्या छ: हो गयी। इनके सिवा अन्य जितने भी वंश हैं, वे सब सूर्यवंश और चन्द्रवंश की शाखायें हैं अथवा उनकी उत्पत्ति इंडो-सीथियन जाति से हुई है, जिनकी गणना भारत में मुस्लिम शासन के पहले, राजस्थान के छत्तीस राजवंशों में की जाती थी। गहिलोत अथवा गहलोत-छत्तीस वंशों के आभूषण और चित्तौड़ के स्वामी सूर्यवंशी राणा की वंशावली सभी की सम्मति के अनुसार जैसा कि इस जाति के गौत्र से भी साबित होता है, उपर्युक्त वंश के सभी राजा सूर्यवंशी रामचंद्र के वंशज माने जाते हैं। यह वंश रामचंद्र से निकला है और पुराणों में लिखी हुई वंशावली के अंतिम राजा सुमित्र के साथ इस वंश का सम्बंध है। इस वंश की अधिक बातें मेवाड़ के इतिहास में लिखी गई हैं। यहाँ पर संक्षेप में उनकी उन्हीं बातों का उल्लेख किया गया है, जो उनके गोत्र और प्रदेशों से सम्बंध रखती हैं अर्थात् जिस गौत्र के लोग कनक सेन के समय से उनके अधीन रहे हैं और जिन्होंने दूसरी शताब्दी में अपना राज्य कौशल को छोड़कर सौराष्ट्र में सूर्यवंश की स्थापना की। विराट के स्थान पर जो पांडवों के वनवास के समय उनके रहने का मशहूर स्थान था, 47
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