करते हुए राजा मानसिंह से प्रार्थना की कि राजधानी के दुर्ग की रक्षा का भार हम लोगों को मिलना चाहिये। मानसिंह ने उनकी इस बात को सुना परन्तु उसकी कुछ परवाह न को। सामन्तों को उत्तर देते हुए उसने कहा- “नगर और दुर्ग दोनों की रक्षा करना है। आपको जोधपुर नगर की रक्षा करने में अपनी शक्तियों का उपयोग करना चाहिये।” मानसिंह के इस उत्तर से उसके सामन्तों को संतोष न मिला और वे राजधानी को छोड़ कर सवाई सिंह के साथ जाकर मिल गये। जो सामन्त अभी तक मानसिंह के साथ थे, उनके भी चले जाने के बाद मानसिंह की शक्तियाँ और भी निर्बल पड़ गयीं। अब उसके साथ वैतनिक सेना को छोड़कर और कोई न रहा। इसलिये उस सेना पर विश्वास करके वह शत्रुओं से युद्ध करने के लिये तैयार हो गया। मानसिंह में साहस और धैर्य की कमी न थी। वह सोचने लगा “यद्यपि शत्रु की सेना अत्यन्त विशाल है, समस्त राठौर सामन्त अपनी सेनाओं के साथ शत्रुओं की सहायता कर रहे हैं। मराठा और पठान सेनाएँ भी शत्रु की तरफ से लड़ रही हैं। फिर भी इस राजधानी पर आसानी से शत्रु का अधिकार नहीं हो सकता।" मानसिंह इस प्रकार की बातें सोचकर राजधानी की रक्षा करने का उपाय सोचने लगा। जगतसिंह जयपुर की शक्तिशाली सेना को लेकर सवाईसिंह के साथ मारवाड़ की तरफ बढ़ा और जोधपुर पहुँचकर उसकी सेना ने नगर में प्रवेश किया। मानसिंह की कोई सेना नगर की रक्षा के लिए न थी। इसलिए जगत सिंह ने जोधपुर नगर पर अधिकार कर लिया और मराठा तथा पठानों की सेना ने वहाँ पर लूट-मार करके भयानक अत्याचार किये । जोधपुर पर अधिकार करके मराठा और पठानों की सेना राजधानी के आस-पास ग्रामों और नगरों में लूट-मार करने लगी। उस समय फलोदी के रहने वालों ने तीन महीने तक आक्रमणकारियों का सामना किया। लेकिन उसके बाद शत्रु के सामने उनको आत्म समर्पण कर देना पड़ा। इसलिए कि उनकी संख्या वहुत कम थी। जगतसिंह की तरफ से बीकानेर के राजा ने अपनी सेना के साथ पहुँच कर फलोदी राज्य पर अधिकार कर लिया। जोधपुर और उसके आस-पास के अनेक नगरों पर अधिकार कर लेने के बाद सवाई सिंह ने एक घोषणा पत्र प्रकाशित करके धौंकल सिंह को राज्य के सिंहासन पर बिठाने के लिए मारवाड़ की प्रजा से प्रार्थना की। मानसिंह जोधपुर के दुर्ग में अपनी सेना के साथ मौजूद था। उसे किले पर शत्रु सेना के आक्रमण का संदेह होने लगा। जोधपुर और उसके आस पास के स्थानों में भीषण रूप से लूट-मार करके मराठा और पठानों की सेना ने जोधपुर के किले पर गोलों की वर्षा आरंभ की। उस समय मानसिंह ने बड़े साहस और धैर्य से काम लिया। परन्तु दुर्ग की रक्षा उसे असंभव मालूम होने लगी। जयपुर की विशाल सेना जोधपुर के दुर्ग को पाँच महीने तक बराबर घेरे रही । परन्तु उसे सफलता न मिली। जयपुर की सेना ने उस दुर्ग के एक हिस्से को गोलों से विध्वंस कर दिया। परन्तु उस स्थान की अस्सी फुट ऊँची पत्थर की दीवार को वे तोड़ न सके। इस दशा में आक्रमणकारी सेना निराश होने लगी। जयपुर की सेना के साथ मराठों और पठानों की जो सेनाएँ आई थीं, उनके सैनिकों और पदाधिकारियों को पाँच महीने तक वेतन देने का कोई प्रबंध न हो सका। उन सव सेनाओं के सैनिकों की संख्या एक लाख से ऊपर थी। उनके खाने-पीने की व्यवस्था में भी बड़ी कमी आ गई । सेनाओं के साथ जो घोड़े थे, उनको पेट भर घास भी न मिलने लगी। जयपुर की सेना के साथ अमीर खाँ की भी एक फौज थी। उसने मारवाड़ के नगरों और ग्रामों में भीषण रूप से लूट की थी और राज्य के सभी व्यावसायिक नगरों को लूटकर उसने 497
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