मारवाड़ की राठौड़ सेना जयपुर की सेना से विल्कुल भयभीत नहीं हो रही थी। उसको मारवाड़े के सामन्तों की सेनाओं का भय था। मारवाड़ और जयपुर के इस होने वाले संग्राम को देखकर मराठा लोग बहुत प्रसन्न हुए। वे लोग राजस्थान के राज्यों को एक, दूसरे से लड़ा कर लाभ उठा रहे थे। इस समय भी मराठों को लूटने और लाभ उठाने का अवसर मिला। मराठों के दो दल हो गये थे और उन दोनों दलों का एक ही उद्देश्य था। मानसिंह ने किसी समय होलकर की सहायता की थी। इसलिये अपनी इस भीषण विपद में उसने होलकर से सहायता माँगी। होलकर अपनी मराठा सेना के साथ मानसिंह की सहायता के लिये आ गया और मानसिंह की सेना से अठारह मील की दूरी पर उसने मुकाम करके अपने दूत के द्वारा मानसिंह को संदेश भेजा कि कल प्रातः काल भेंट होगी। सवाई सिंह वड़ी सावधानी के साथ मानसिंह की चालों का अध्ययन कर रहा था। उसे जव मालूम हुआ कि होलकर अपनी मराठा सेना को लेकर मानसिंह की सहायता के लिए आया है, तो उसने होलकर को मिला लेने की चेष्टा की। उसने होलकर के पास संदेश भेजा कि उसकी मराठा सेना मानसिंह की सहायता न करके कोटा की तरफ चली जाये और वहाँ पहुँचने पर उसको एक लाख रुपये भेंट किये जायेंगे। होलकर रुपये का लोभी था। विना युद्ध किये एक लाख रुपये का प्रलोभन वह रोक न सका। मानसिंह के उपकारों को भूलकर उसने सवाईसिंह के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और सवाईसिंह से एक लाख रुपये की हुण्डी लेकर वह कोटा की तरफ चला गया। होलकर के इस व्यवहार को देखकर मानसिंह बहुत हताश हो गया। फिर भी उसने साहस से काम लिया और अपनी सेना के बल पर युद्ध करने के लिये वह आगे बढ़ा। होलकर की मराठा सेना के चले जाने पर जयपुर की विशाल सेना आगे बढ़ी और गागोली नामक स्थान पर उसने गोले वरसाने आरंभ किये। इस समय युद्ध में कुचामन, अहवा, जालौर और नीमाज के सामन्त राजा मानसिंह के सहायक थे। गोलों की वर्षा के बाद दोनों ओर से प्रलंयकारी युद्ध आरंभ हुआ। मानसिंह के सहायक सामन्तों ने उसको समझाया कि जयपुर की इस विशाल सेना के साथ युद्ध कर सकना असंभव है । इसलिये संग्राम को रोक देना ही अधिक हितकर मालूम होता है। इसी समय कुचामन के सामन्त शिवनाथ सिंह ने मानसिंह के पास जाकर उसको हाथी से उतार लिया और एक तेज घोड़े पर बिठाकर युद्ध से चले जाने के लिये उससे अनुरोध किया। मानसिंह तुरन्त वहाँ से चला गया। लेकिन इस समय उसको अत्यन्त वेदना हुई। दोनों ओर से गोलों की वर्षा होने के समय मानसिंह किसी प्रकार वहाँ से निकलकर मेड़ता में पहुँच गया। उसके पीछे उसके गोलंदाज भी वहाँ पहुँच गये। वहाँ पहुँचकर मानसिंह को कुछ शान्ति मिली । विशाल शत्रु-सेना के आक्रमण से उस समय निकल आना उसको कठिन मालूम हो रहा था। उसने सोचा कि मेड़ता बहुत सुरक्षित स्थान नहीं है। इसलिये वह पीपाड होकर जोधपुर की राजधानी चला गया। मारवाड़ के जिन सामन्तों ने इस भयानक विपद में भी उसका साथ न छोड़ा था, वे भी उसके साथ राजधानी गये। मानसिंह और उसके सामन्तों के भाग जाने पर जगतसिंह की सेना ने मानसिंह के शिविर में लूट की और मारवाड़ की अठारह तोपें अपने अधिकार में कर ली। जयपुर की सेना के साथ सोंधिया की मराठा सेना भी थी। सेनापति डालाराव के सैनिकों ने उस लूट में अधिक लाभ उठाया। अमीर खाँ की फौज ने वहाँ पर बहुत सी चीजें लूटकर अपने कब्जे में कर लीं। जयपुर की इस विशाल सेना ने युद्ध क्षेत्र से चलकर पर्वतसर और उसके आस-पास के गाँवों को लूट लिया। 1 495
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