प्रकार की तैयारी कर ली है। यदि आप ऐसे समय में राठौरों की सेना भेजकर हमारी सहायता करेंगे तो निश्चित रूप से हम मराठों को पराजित करके राजस्थान से उनको भगा देंगे।" विजय सिंह ने संकट के समय अजमेर के साथ-साथ चौथ देकर मराठों से संधि की थी। वह अब भी मराठों से अपना वदला लेना चाहता था। प्रताप सिंह का यह संदेश पाकर वह प्रसन्न हो उठा और राठौरों की एक सेना तैयार करके उसने प्रताप सिंह के पास उनको भेज दिया। जयपुर के राजा ईश्वरी सिंह की स्त्री ने किसी समय विजयसिंह के पिता की हत्या करने का काम किया था और ईश्वरी सिंह ने स्वयं विजय सिंह को कैद करके उसका सर्वनाश करने की चेष्टा की थी। परन्तु विजय सिंह ने इस अवसर पर उन बातों को भुला दिया। वह समझता था कि आपस की इस शत्रुता को यदि हम मिटा नहीं सके तो मराठा लोग हम सब लोगों का सदा सर्वनाश करते रहेंगे। इसलिए राजपूतों के गौरव की रक्षा के लिए उसने पुरानी शत्रुता पर धूल डाली और प्रताप सिंह के अनुसार राठौरों की एक सेना उसने भेज दी। वियार का सामन्त जवानदास राठौरों की उस सेना का सेनापति होकर गया था। वह जयपुर पहुँचकर प्रतापसिंह की सेना के साथ मिल गया। जयपुर का राजा प्रतापसिंह पहले से ही मराठों के साथ युद्ध के लिए तैयार बैठा था। राठौड़ सेना के पहुँचते ही तूंगा नामक स्थान पर राजपूतों ने मराठों के साथ युद्ध आरंभ कर दिया। उस संग्राम में आरम्भ से ही राठौड़ सेना शक्तिशाली सावित हो रही थी। मराठा सैनिकों ने सेनापति डिवोइन के द्वारा युद्ध की शिक्षा पायी थी। फिर भी इस युद्ध में मराठा सेना के पैर उखड़ने लगे। जवानदास की राठौड़ सेना मराठा गोलंदाजों के ऊपर एक साथ टूट पड़ी और उस समय राठौड़ों ने भयानक मारकाट की, जिससे मराठे घवरा उठे। उनके वहुत-से सैनिक मारे गये और जो वाकी रहे, वे परास्त होकर युद्ध भूमि से भाग गये। इसी अवसर पर विजयी राठौड़ सेना ने अजमेर पर अधिकार कर लिया और वहाँ पर राठौड़ों का झण्डा लगाकर अपना प्रबंध आरंभ कर दिया। राठौड़ों ने अजमेर पर अधिकार करके उस संधि को खत्म कर दिया, जो विजय सिंह के द्वारा मराठों के साथ की गयी थी। इसी समय विजय सिंह ने मराठों को कर देना भी वन्द कर दिया। युद्ध में राजपूतों के साथ पराजित होकर माधव जी सिंधिया निराश नहीं हुआ। फ्रांसीसी सेनापति डिवोइन के साथ परामर्श कररके उसने एक विशाल सेना का संगठन किया और उस सेना को युद्ध की योरोपियन शिक्षा देना शुरू किया। माधव जी सिंधिया अत्यन्त वुद्धिमान और मराठा सेना का दूरदर्शी सेनापति था। राजपूतों के साथ पराजित होकर भी उसने बहुत-सी बातें सीखी थी। अजमेर में रहकर मराठों ने राजपूतों के अनेक गुणों और अवगुणों की जानकारी प्राप्त की थी। माधवजी सिंधिया ने राजपूतों के युद्ध कौशल का अध्ययन करके उसका लाभ मराठा सैनिकों को पहुँचाया था। तुंग के युद्ध क्षेत्र में पराजित होकर मराठा लोग चार वर्ष तक चुपचाप रहे । इन दिनों में राजपूतों से बदला लेने के लिए उनकी तैयारियाँ गुप्त रूप से होती रही। माधव जी सींधिया अपनी पराजय का कारण भली-भाँति समझता था और वह यह भी समझता था कि दो राज्य के राजपूत अधिक समय तक संगठित होकर और एक होकर नहीं रह सकते । चार वर्षों में उसने अपनी विशाल सेना का संगठन कर लिया। उसके वाद वह राठौरों से वदला लेने के लिए रवाना हुआ। माधव जी सिंधिया की इस विशाल सेना के आने का समाचार । 483
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