संसार की सभी प्राचीन जातियों के युद्ध के तरीके एक से थे। उन सबके देवता एक थे। भाषा की विभिन्नता के कारण आज उनके नामों में अंतर आ गये हैं। सभी जातियाँ युद्ध में जाने के पहले देवताओं का स्मरण करती हैं और अपने आदि पुरुषों से प्रेरणा प्राप्त करती हैं। यह पहले लिखा जा चुका है कि संसार की सभी जातियों का आदि पुरुप एक ही था। प्राचीन काल में युद्ध में जाने वाले लोग अपने-अपने देवता की मूर्तियाँ ले जाते थे। युद्ध में लड़ने की कलाएँ उन सभी की एक-सी थीं। सभी जातियों में लोग हथियारों में वर्छ और भालों का प्रयोग करते थे। सुएबी. अथवा सुयेनीज लोगों ने उपसाला का प्रसिद्ध मंदिर बनवाया और उनमें थोर, वोडेन और फ्रेमा नामक अपने देवताओं की मूर्तियाँ रखीं। सूर्यवंशी और चंद्रवंशी राजपूतों में भी ये तीन देवता माने जाते हैं। थोर अर्थात् युद्ध का देवता महादेव अर्थात् शत्रु का नाश करने वाला देवता, दूसरा बोडेन अर्थात् बुध जो रक्षा करता है और तीसरा फ्रेमा अर्थात् उमा जो शक्ति उत्पन्न करने वाली देवी है। वसन्त ऋतु में फ्रेमा का उत्सव मनाने की प्रसिद्ध प्रथा थी। उस उत्सव में स्कैंडीनेवियन लोग सुअर का बलिदान करते थे। इसी बसंत में राजपूत लोग सबसे बड़ा उत्सव मनाते हैं और बसंत के प्रारंभ में राजपूत राजा सुअर का शिकार करने के लिये अपने सरदारों के साथ जाता है। यदि राजा को सुअर के शिकार में सफलता न मिले तो उसके लिये वह वर्ष अपशकुन का माना जाता है। पिंकटून टॉलेमी के अनुसंधान के आधार पर जटलैंड की जिन छः जातियों का जिक्र किया गया है, उनके देवता और उनके धार्मिक विश्वास उसी प्रकार के थे जैसे कि ऊपर अनेक प्राचीन जातियों के सम्बंध में लिखा गया है। सैमीज ने भी इन बातों का समर्थन किया है। जटलैण्ड की छः जातियों में किम्बी का नाम बहुत प्रसिद्ध है। उस जाति के लोग अपने जीवन में वीरता को सबसे प्रधान मानते थे। भारत के राजपूतों में जितने भी अच्छे गुण थे और आज भी हैं, उनमें उनकी वीरता प्रमुख है। कोई भी ऐसा राजपूत न मिलेगा, जिसमें इस गुण का अभाव हो । इस प्रकार की और भी बहुत-सी बातें मिलती हैं जो संसार की विभिन्न प्राचीन जातियों का आदिकाल में एक होना साबित करती हैं। कुमार को राजपूत युद्ध का देवता मानते हैं। हिन्दुओं के ग्रंथों में और उनकी देव-कथाओं में उस देवता के सात सिर बताये गये हैं। सैक्सन लोग अपने युद्ध के देवता के छ: सिर मानते थे। किम्ब्री सोनीज का मार्स छः सिर वाला माना गया था और वेजर नदी के तट पर उसके नाम का इर्मन स्योल बनाया गया था। सैकेसनी, कट्टी, सीबी अथवा सुएबी, जोटी अथवा जेटी और किम्ब्री जाति के लोग उसकी पूजा किया करते थे। राजपूतों के धर्म और सिद्धांत बाकी उन हिन्दुओं के धर्म और सिद्धांतों से नहीं मिलते, जो लोग फलों, पत्तियों और पौधों को खाकर जीवन निर्वाह करते हैं और गाय की पूजा करते हैं । राजपूत लोग युद्ध करना और शत्रु का नाश करना पसंद करते हैं, अपने युद्ध के देवता पर वे रक्त और मदिरा चढ़ाते हैं और जिस पात्र में वे अपने देवता का अर्घ्य देते हैं, वह मनुष्य की खोपड़ी का होता है। उनका देवता इन चीजों को पसंद करता है और इसीलिये उनको भी प्रिय है। राजपूतों की ये सभी बातें, उनके कार्य विश्वास और सिद्धांत ठीक उसी प्रकार के हैं, जिस प्रकार स्कैंडीनेवियन वीरों के। 42
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