इन्हीं दिनों में दक्षिण के झगड़े बहुत बढ़ गये । शाहजादे ने अपने साथ साठ हजार , विद्रोहियों की सेना का संगठन किया और उसने मालवा, सूरत और अहमदपुर पर आक्रमण करके वहां के गिरधर बहादुर, इब्राहिम कुली, रुस्तम अली और मुगल सुजाअत आदि अधिकारियों को मरवा डाला ।बादशाह ने इस समाचार को सुनकर तुरन्त वहाँ के विद्रोह को दबाने की चेष्टा की और पचास हजार सैनिकों की एक विशाल सेना देकर उसने सरबुलन्द खाँ को रवाना किया। सेना के खर्च के लिए बादशाह ने खजाने से एक करोड़ रुपये भी दिये। सेनापति सरबुलन्दखाँ अपनी फौज के साथ रवाना हुआ। उसके आगे चलने वाली मुगलों की दस हजार सेना ने विद्रोहियों के साथ युद्ध किया। लेकिन उसकी पराजय हो गई। विद्रोहियों का इस प्रकार बल और पराक्रम देखकर सरबुलन्द खाँ ने सन्धि का प्रस्ताव किया और अन्त में उसने वहाँ के राज्य के विभाजन को स्वीकार कर लिया। एक दिन जिस समय मोहम्मदशाह दिल्ली के सिंहासन पर बैठा हुआ था और दरबार में ऊँची श्रेणी के दो सौ सामन्त और उमराव मौजूद थे, दक्षिण से समाचार आया कि सरबुलन्दखाँ वहाँ पहुँचकर विद्रोहियों के साथ मिल गया। दरबार में उस समय प्रधान राजमन्त्री कमरुद्दीनखाँ, ऐत्तमादुद्दौला खाँ नदौरान, मीरबख्शी, समशुद्दौला, अमीरुलउमरा, मनसूर अली, रोशनउद्दौला, तुर्रावाज खाँ, रुस्तमजंग, अफगान खाँ, ख्वाजा सैयदउद्दीन, सआदत खाँ, बुरहान उलमुल्क, अब्दुलसमद खाँ, दलीलखाँ, जफरखाँ, दलेलखाँ, मीरहमला, खानखाना, जफर जंग, इरादत खाँ, मुरशिद कुली खाँ, जफरयाबर खाँ, अलीवर्दी खाँ और अजमेर का शासक मुजफ्फर खाँ आदि बहुत से अमीर उमराव बैठे थे। उन सभी की उपस्थिति में ऊँचे स्वर से पढ़ा गया कि सरबुलन्द खाँ ने गुजरात पर अधिकार करके अपने आपको वहाँ का बादशाह घोषित किया है और मंडला, झाला, चौरसमाँ, बघेला तथा गोरिल जातियों को परास्त करके उनका विध्वंस कर डाला है। सरबुलन्द खाँ के इन अत्याचारों से भूमिया लोगों ने अपने-अपने दुर्ग छोड़ दिये हैं और वे सरबुलन्द खाँ की शरण में आ गये हैं। सरबुलन्द खाँ अहमदाबाद का बादशाह बनकर दक्षिण के मराठों से मिल गया है। इस समाचार को सुनकर बादशाह मोहम्मदशाह ने गंभीरता के साथ विचार कर निर्णय किया कि यदि सरबुलंद खाँ का दमन न किया गया तो इसका प्रभाव साम्राज्य में सभी राजाओं और सामन्तों पर पड़ेगा और वे सभी लोग साम्राज्य की अधीनता को तोड़कर स्वतंत्र हो जाने की चेष्टा करेंगे। इन दिनों में साम्राज्य के कई भागों से ऐसे समाचार आये थे, जिनसे मालूम हुआ कि साम्राज्य की अधीनता में चलने वाले कितने ही राजाओं ने स्वतंत्र हो जाने की कोशिश शुरू कर दी है। इन दिनों में मुगल बादशाह का प्रताप एक निर्बल दीपक की भाँति कमजोर पड़ गया था। इस दशा में मोहम्मदशाह ने अपने साम्राज्य की शक्तियों को फिर से मजबूत बनाने का उपाय सोचा। मुगल साम्राज्य का पतन औरंगजेब के शासनकाल में ही आरंभ हो गया था। उसके बाद जो लोग उस सिंहासन पर बैठे, साम्राज्य के पतन को वे रोक न सके। धीरे-धीरे मुगलों की शक्तियाँ क्षीण हो गयी और इधर बहुत दिनों से साम्राज्य का सिंहासन डावाँडोल हो रहा था। मुगलों की इस बढ़ती हुई कमजोरी में सभी अधिकृत हिन्दू और मुसलमान राजा और नवाब साम्राज्य से सम्बंध तोड़ देने की चेष्टा कर रहे थे। इस प्रकार के लोगों में सरबुलंद खाँ पहला आदमी था। 453
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