। प्रज्वलित अग्नि में हँसते हुए जलकर अपने पति की मैं चिरसंगिनी बन सकूँ। इसके सिवा मेरा कल्याण किसी प्रकार किसी दूसरे मार्ग पर चलकर नहीं हो सकता।” इसके बाद श्मशान भूमि में वाजे बजे । सहस्त्रों मुखों से एक साथ भगवान का नाम निकला। दीन-दुखियों को धन लुटाया गया। सभी रानियाँ चिता पर वैठ चुकी थीं। उसमें आग दी गयी और क्षण-भर में चिता की होली जली। अजीतसिंह की अवस्था इस समय पैंतालीस वर्ष तीन महीने और वाईस दिन की थी। मारवाड़ के सिंहासन पर अब तक जितने भी राजा बैठे थे, अजीतसिंह का स्थान सवसे अधिक श्रेष्ठ रहा । उसका जन्म और पालनपोषण जिस प्रकार कठोर रहा, उसकी मृत्यु उसी प्रकार रहस्यपूर्ण रही। अजीतसिंह ने अपनी परिस्थितियों में जकड़े रहने पर भी वंश और राज्य के लिये वहुत कुछ किया। अजीत जव सत्रह वर्ष की अवस्था में भी न पहुँचा था, मारवाड़ के सामन्त, सरदार और श्रेष्ठ पुरुष उसको देखने के लिये इतने लालायित हो उठे थे कि यदि वे राजकुमार को देखने का अवसर न पाते तो पता नहीं वे क्या करते। राज्य की यह श्रद्धा और भक्ति अजीतसिंह को उस समय प्राप्त हुई थी, जब वह सोलह-सत्रह वर्ष का एक नवयुवक था और न तो उसने अपने राज्य के दर्शन किये थे और न राज्य के लोगों ने उसके दर्शन किये थे। उस अवस्था में मारवाड़ के लोगों ने प्रतिज्ञा की थी कि हम लोग उसी समय अन्न-जल ग्रहण करेंगें, जब हम अपने नेत्रों से राजकुमार को देख लेंगे। अजीतसिंह असाधारण रूप से साहसी, वीर और दृढ़ प्रतिज्ञ था। उसके शरीर का गठन उसके शौर्य का परिचय देता था। अजीतसिंह ने शत्रुओं के साथ लगातार तीस वर्षों तक युद्ध किया था। सम्वत् 1765 में अजमेर में सैयद वन्धुओं के साथ जिस संग्राम की आग भड़की थी, उसमें अजीत ने अपनी राजनीति और दूरदर्शिता का परिचय दिया था। उस समय सैयद बन्धुओं के साथ उसकी गुप्त सन्धि हुई थी। अजीतसिंह के जीवन का शेष भाग मुगल बादशाह के दरवार में ही बीता था। मुगल बादशाह ने जैसा व्यवहार उसके साथ किया था, ठीक वैसा ही व्यवहार अजीतसिंह ने मुगल बादशाह के साथ किया था। इस विषय में अजीतसिंह की राजनीति, गम्भीरता और योग्यता सर्वथा प्रशंसनीय थी। अजीतसिंह के जीवन के कार्यों के सम्बन्ध में सभी बातें ऊपर लिखी जा चुकी हैं। लेकिन उसके जीवन चरित्र में एक ऐसा दाग है, जिसका स्पष्टीकरण उस समय के किसी प्राचीन ग्रन्थ से नहीं होता है। यहाँ पर संक्षेप में उसका उल्लेख करना आवश्यक है अजीत के प्राणों की रक्षा का सम्पूर्ण श्रेय दुर्गादास को है। उसने अपने प्राणों का मोह छोड़कर अजीत की रक्षा की थी। औरंगजेब अजीत के प्राणों को हरण करने के लिये पूर्ण रूप से तुला हुआ था। इसके लिये उसने उचित और अनुचित, सभी प्रकार के कार्य किये थे। शक्तिशाली मुगल बादशाह औरंगजेब से शिशु अजीत के प्राणों की रक्षा करने का कार्य केवल दुर्गादास से ही हो सकता था। इसमें किसी को सन्देह नहीं हो सकता है कि यदि दुर्गादास न होता तो कदाचित किसी दूसरे को उसकी रक्षा में सफलता न मिलती और औरंगजेब के द्वारा शिशु अजीत संसार से विदा कर दिया गया होता। परन्तु दुर्गादास ने अपने विश्वासी राठौड़ सरदारों की सहायता से अजीत के प्राणों की रक्षा की। उसने अनेक अवसरों पर स्वार्थ और त्याग के अपूर्व उदाहरण दिये। बादशाह का कोई भी प्रलोभन दुर्गादास को आकर्षित न कर सका। वह एक स्वाभिमानी राजपूत था। अपने प्राणों को उत्सर्ग करके जो अजीत की रक्षा करना चाहता था, उसके सामने प्रलोभन का क्या महत्व होता है। उसने अनेक मौकों पर वादशाह की सम्पत्ति और 449
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