भट्ट ग्रन्थों के अनुसार सम्वत् 1775 के मास पोष की सुदी दूज के दिन बादशाह फर्रुखसियर ने अजीतसिंह से भेंट की। अजीतसिंह ने भी बादशाह का अधिक से अधिक सम्मान किया। उसने एक लाख रूपये का आसन विछाकर उसके ऊपर बादशाह के बैठने का जो स्थान तैयार किया गया, वह सर्वथा अपूर्व था। बादशाह उसके ऊपर बिठाया गया और उसको हाथी, घोड़े तथा बहुमूल्य हीरे, जवाहरात भेंट में दिये गये। बादशाह इस सम्मान से बहुत प्रसन्न हुआ। इस अवसर पर दिल्ली में अजीतसिंह को जो सम्मान दिया गया वह पहले कभी किसी को यहाँ पर न मिला था। फागुन के महीने में बादशाह के साथ अजित सिंह और सैयद बन्धुओं ने एक गुप्त परामर्श किया और उस परामर्श में जो निश्चय हुआ, उसके द्वारा एक षड़यन्त्र की सृष्टि की गयी और उसे लिखकर दक्षिण में हुसैन अली के पास भेज दिया गया। इसके साथ ही उसको तुरन्त आकर मिलने के लिये लिखा गया। इस प्रकार के कई कार्य गुप्त रूप से किये गये। भट्ट कवियों ने इस अवसर की आलोचना करते हुए लिखा है- "इस समय दिल्ली का वातावरण अत्यन्त अनिश्चित रूप में दिखायी दे रहा था। चारों तरफ प्रज्वलित दावानल दिखायी दे रहे थे। भविष्य अन्धकारपूर्ण हो रहा था। दिल्ली के विचारशील व्यक्ति अनेक प्रकार की दुर्भाग्यपूर्ण कल्पनायें कर रहे थे। इन्हीं दिनों में दक्षिण से लौट कर हुसैन अली दिल्ली में आ गया। उसके महल के पास पहुँचते ही प्रसन्नता के बाजे बजाये गये । हुसैन अली के साथ बड़ी संख्या में जो अश्वारोही सैनिक आये थे, उनको देखकर विद्रोही लोग तरह-तरह के अनुमान लगाने लगे। बादशाह ने हुसैन अली के पास उपहार में बहुत-सी चीजें भेजी। इस समय दिल्ली में विद्रोहात्मक वातावरण शान्त दिखायी दे रहा था। हुसैन अली के आने के दूसरे दिन सैयद बन्धु और उनके साथी जमुना के किनारे अजीतसिंह से शिविर में जाकर मिले और उन्होंने गुप्त रूप से कुछ बातें की। सैयद बन्धुओं के चले जाने के बाद अजीतसिंह अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर अपनी घोड़ी पर सवार हुआ और राठौड़ सेना को लेकर वह बादशाह के महलों की तरफ चला। वहाँ पहुँचकर उसने. महलों के आस-पास अपनी सेना का घेरा डाल दिया और महलों को अपने अधिकार में ले लिया। दिल्ली के उस समय का उल्लेख करते हुए भट्ट ग्रन्थों में लिखा गया है कि अजीतसिंह उस समय दिल्ली के मुगलों को अत्यन्त भयानक रूप में दिखायी दे रहा था। अजीतसिंह के आने के पहले दिल्ली की अवस्था अत्यन्त भयानक थी। इस समय विद्रोह की आग फिर भड़की । बादशाह का खजाना लूट लिया गया। फर्रुखसियर के प्राणों की रक्षा करने वाला कोई दिखायी न पडा। आमेर का राजा जयसिंह दिल्ली की इस भयानक परिस्थिति को देखकर वहाँ से अपने राज्य को चला गया। फर्रुखसियर को मार डाला गया और उसके स्थान पर दूसरा मनुष्य दिल्ली के राज सिंहासन पर बिठाया गया। परन्तु चार महीने में उसकी मृत्यु हो गयी। उसके मर जाने पर रफीउद्दौला को दिल्ली के सिंहासन पर विठाया गया। परन्तु दिल्ली के मुगल अमीरों ने उसका विरोध किया और उन्होंने आगरा में नीकोशाह को मुगल राज्य का सम्राट बनाया। उसके विरुद्ध हुसैन अली दिल्ली से आगरा की तरफ रवाना हुआ। जाने से पहले उसने अजीतसिंह और अब्दुल्ला को बादशाह रफीउद्दौला की रक्षा के लिये दिल्ली में छोड़ा। बादशाह फर्रुखसियर के मारे जाने का वर्णन पहले किया जा चुका है। उसके स्थान पर जो सिंहासन पर विठाया गया, उसके नाम का कोई उल्लेख नहीं है। वह उन्माद के रोग में चौथे महीने में मर गया। 1. 443
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