सैयद बन्धु इस समय बड़ी घबराहट में थे। इस संकट के समय दोनों भाइयों ने अजीतसिंह का भरोसा किया और सेना के साथ उसे दिल्ली आने के लिये सन्देश भेजा। अजीतसिंह ने अपनी सेना तैयार की और उसे लेकर वह नागौर, मेड़ता, पुष्कर, मारोट और साँभर होकर दिल्ली पहुँचा। साँभर के दुर्ग में उसने अपनी सेना का एक बड़ा भाग छोड़ दिया और मारोट से उसने अपने पुत्र अभयसिंह को राजधानी की रक्षा करने के लिये भेज दिया। सैयद बन्धुओं को समाचार मिला कि अजीतसिंह अपनी सेना के साथ आ रहा है, वह तुरन्त उसके स्वागत के लिये दिल्ली से रवाना हुए और अलीवर्दी खाँ की सराय में पहुँचकर उन्होंने अजीतसिंह का स्वागत-सत्कार किया। सैयदों ने विद्रोह की सारी बातें अजीतसिंह से कही। राजा जयसिंह और मुगल अमीर बादशाह की तरफ थे। उन्होंने सैयद बन्धुओं का विरोध किया। इसी अवसर पर जयसिंह ने अजीतसिंह को समझाया कि मुगलों से बटला लेने के लिये इससे अच्छा अवसर दूसरा कोई नहीं मिलेगा। अजीतसिंह ने गुप्त रूप स सैयद बन्धुओं के साथ सन्धि की। इसके बाद सैयद बन्धुओं ने अपने विरोधी जुलफिकार खाँ को जान से मार डाला। भविष्य में आने वाली परिस्थितियों को कोई नहीं जानता। एक समय था, जब मुगल बादशाह औरंगजेब ने हिन्दुओं के साथ अत्याचार करने में अपनी शक्ति को बाकी न रखा था और जसवन्तसिंह के पुत्र शिशु अजीत को संसार से विदा कर देने के लिये उसने भयानक अत्याचार किये थे। एक समय आज था, जब अत्याचारी औरंगजेब इस संसार से विदा हो चुका था और उसके सिंहासन पर बैठा हुआ मुगल बादशाह फर्रुखसियर केवल अजीतसिंह की सहायता के बल पर अपने सौभाग्य के सपने देख रहा था। दिल्ली में अजीतसिंह के आने का समाचार सुनकर मुगल बादशाह ने कोटा राज्य के हाड़ाराव भीम और खान दौरानखाँ को तुरन्त अजीतसिंह के पास भेजा और उसने अजीतसिंह से भेंट करने की अपनी तीव्र अभिलाषा प्रकट की। मोती बाग के महल के ऊपर बादशाह के साथ अजीतसिंह की भेंट का स्थान नियुक्त हुआ। अजीतसिंह अपने साथ सामन्तों और बहुत से राठौड़ शूरवीरों को लेकर मोतीबाग के लिये रवाना हुआ। उसके साथ जैसलमेर के रावविष्णुसिंह, देरावल के पद्मसिंह, मेवाड़ के फतेहसिंह, सीतामऊ के राठौड़ प्रधान मानसिंह, रामपुरा के चन्दावत गोपाल, खण्डेला के उदयसिंह, मनोहरपुर के शक्तिसिंह, खिलचीपुर के कृष्णसिंह आदि बहुत से सुयोग्य और सबल राजपूत चले। इस समय मारवाड़ के राजा होने के कारण ही नहीं, बल्कि बादशाह की तरफ गुजरात के शासक होने के कारण समस्त राजपूत सामन्त और सरदार इस समय अजीतसिंह को अधिक महत्व दे रहे थे। बादशाह ने अत्यन्त सम्मान के साथ मोतीबाग में अजीतसिंह से भेंट की और उसने अजीतसिंह को सातहजारी मनसब की उपाधि दी। मुगल राज्य का कुछ हिस्सा देकर उसके राज्य की सीमा बढ़ायी। इसके साथ-साथ उसने एक करोड़ रूपये की जागीर भी अजीतसिंह को दी। बादशाह फर्रुखसियर ने अनेक प्रकार से अजीतसिंह का सम्मान किया। हाथी-घोड़े सोने की म्यान में ढकी हुई तलवार, किरिच, हीरों के सिरपंच, दो कीमती मोतियों की मालायें और बहुमूल्य हीरे-जवाहरात आदि बादशाह फर्रुखसियर ने उपहार में अजीतसिंह को दिये । इसके पश्चात् अबदुल्ला खाँ ने बड़े आदर के साथ अजीतसिंह का स्वागत किया। इस प्रकार के स्वागत-सत्कार के समाचारों को सुनकर सैयद बन्धुओं के विरोधी अनेक प्रकार की शंकायें करने लगे और गुप्त रूप से उन्होंने अजीतसिंह पर एक साथ आक्रमण करने का निश्चय किया। 442 साँचा:गलत
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