सम्वत् 1757 के पौप महीने में अजीत अपने पिता के राजसिंहासन पर बैठा। जोधपुर में जाकर वहाँ के पाँचों द्वारों के सामने एक भैंसे की बलि दी। इन्हीं दिनों में सुजावतखाँ की मृत्यु हुई। सम्वत् 1759 में आजमशाह ने फिर जोधपुर में आक्रमण किया। अजीतसिंह जालौर में जाकर रहने लगा। उसके कुछ सरदार शत्रुओं के साथ चले गये। इन दिनों में मुसलमानों अत्याचार फिर से बढ़े और मथुरा, प्रयाग तथा ओकामंडल में गोहत्यायें होने लगी। इस समय हिन्दुओं की शक्तियाँ क्षीण पड़ रही थीं और मुसलमानों के अत्याचार बढ़ते जा रहे थे। इसी वर्ष माघ में महीने में अजीत की बड़ी रानी से एक लड़का पैदा हुआ। उसका नाम अभयसिंह रखा गया। यूसुफ खाँ इन दिनों में जोधपुर का प्रधान अधिकारी था। उसने जोधपुर पहुंचकर वादशाह की आज्ञानुसार मेड़ता प्रदेश के शासन अधिकार अजीत के सुपुर्द कर दिया। मेड़ता के सरदार कुशलसिंह और धाँधल गोविन्ददास को वहाँ का प्रबन्ध करने के लिये आदेश मिला। इन्द्रसिंह के पुत्र मुहकमसिंह ने शिशु अवस्था में अजीत की रक्षा की थी। वह मेड़ता का अधिकार अपने लिये चाहता था। लेकिन अजीत के ऐसा न करने से उसको बहुत असन्तोष हुआ। इसलिये उसने बादशाह को एक पत्र लिखा-“यदि आप मुझे मारवाड़ का सेनापति बना दें तो मैं वहाँ के हिन्दूओं और मुसलमानों, दोनों के लिये सन्तोषजनक शासन कर सकता हूँ।" सम्वत् 1761 में मुगलों के सौभाग्य का सूर्य पश्चिम में पहुँच कर अपने अस्त होने की तैयारी करने लगा। औरंगजेब ने मुगल राज्य के सिंहासन पर बैठकर हिन्दुओं के साथ जितने अमानुषिक अत्याचार किये थे, उनके अन्त होने का समय लोगों को साफ-साफ दिखायी देने लगा। मुरशिदकुली खाँ इधर कुछ दिनों से मारवाड़ का शासक था। इस वर्ष उसका पद जाफर खाँ को दिया गया। जाफर खाँ जोधपुर के राठौर सामन्त के पास आया। मोहकमसिंह ने अजीत से अप्रसन्न होकर एक पत्र वादशाह के पास भेजा। वह पत्र अजीत को मिल गया। मोहकमसिंह को जब यह मालूम हुआ तो वह अत्यन्त भयभीत स्थान से भागकर वह मुगल बादशाह की सेना में चला गया। अजीत को यह अच्छा न लगा ।उसने राजद्रोही मोहकमसिंह को दण्ड देने का निश्चय किया। उसने युद्ध की तैयारी की और दूनाडा नामक स्थान पर पहुँचकर उसने बादशाह की फौज के साथ युद्ध किया। उस युद्ध में मुगल सेना की पराजय हुई, मोहकमसिंह मारा गया। यह युद्ध सम्वत् 1762 में हुआ था। सम्वत् 1763 में इवाहीम खाँ जो लाहौर में वादशाह का सूवेदार था, मारवाड़ होकर गुजरात गया। वहाँ पर उसे शहजादा आजम से शासन का अधिकार लेना था। चैत मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया को राठौड़ों समाचार सुना कि बादशाह औरंगजेब की मृत्यु हो गयी। इस समाचार को सुनकर अजीत घोड़े पर सवार होकर अपनी सेना के साथ जोधपुर की तरफ रवाना हुआ और वहाँ पहुँचकर राजधानी के तोरण द्वार पर मारवाड़ की पुरानी रीति के अनुसार उसने भैंसों का बलिदान किया। जोधपुर में अजीतसिंह के पहुँचने पर वहाँ की मुगल सेना घवरा उठी। उसका अधिकारी मुगल भयभीत होकर जोधपुर से भाग गया। अजीतसिंह ने अपनी सेना के साथ जोधपुर की राजधानी में प्रवेश किया। राठौड़ सेना ने मुगल सूबेदार की सम्पूर्ण सम्पत्ति पर उठा और अपने 434
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