स्वयं अपनी सेना के साथ रास्ते में रुका रहा। पर्वत श्रेणी के आगे बढ़कर कुछ दूर जाने पर मुकुन्ददास शत्रु के षड़यंत्र का पता चल गया। उसने लौटकर राजकुमार अजीत को सभी बातें बतायी। परन्तु राजकुमार उससे भयभीत न हुआ। उसने अपने सरदारों से बातचीत करते हुये कहा - “जब हम लोग इतने समीप आ गये हैं तो अजयदुर्ग पर पहुँचकर हमें सफीखाँ का रंग-ढंग देख लेना चाहिये।" इस प्रकार निर्णय करके राजकुमार अपनी सेना के साथ आगे बढ़ा। सफीखाँ को राठौड़ सेना के आने का समाचार मिला। वह घबरा उठा और अपनी कमजोरी को समझ कर प्राणों की रक्षा का उपाय सोचने लगा। वह बहुत सी सम्पत्ति और घोड़ों को साथ में लेकर राजकुमार अजीत के पास पहुँचा और उन्हें भेंट में देकर उसने अधीनता स्वीकार की। सम्वत् 1748 का वर्ष आरम्भ हुआ, इन दिनों में राणा के विरुद्ध मेवाड़ में विद्रोह हुआ। राजकुमार अमरसिंह अपने पिता राणा जयसिंह को सिंहासन से उतार कर उस पर बैठना चाहता था। मेवाड़ राज्य के सभी सामन्तों और सरदारों ने राजकुमार अमर का साथ दिया। यह देखकर राणा जयसिंह भयभीत हो उठा और वह घबरा कर गोडवाड राज्य में भाग गया और धाणेराव में सेना का संगठन करने लगा। अमर ने उस पर आक्रमण करने की तैयारी की। राणा जयसिंह घबरा उठा। अपनी इस विपद में उसने राठौड़ों से सहायता माँगी। राजकुमार अजीत ने राणा की सहायता करने का निश्चय किया। उसने तुरन्त मेड़तिया लोगों को राणा की सहायता के लिये भेजा और उसके बाद उसने दुर्गादास और भगवानदास को रवाना किया। दुर्गादास ने जोधावंशी रिडमल्ल और मारवाड़ के आठ सामन्तों लेकर राणा की सहायता के लिये यात्रा की । परन्तु उसके पहुँचने के पहले ही चूड़ावत, शक्तावत, झालावत और चौहानों ने पिता-पुत्र के संघर्ष को दूर कर दिया था। इन दिनों में राठौड़ों का साहस और बल जिस प्रकार बढ़ रहा था, वह औरंगजेब से छिपा न था। इन दिनों में औरंगजेब की चिन्ता का और भी कारण था। शाहजादा अकबर की लड़की दुर्गादास के आश्रय में थी। वह अब बड़ी हो गई थी। उसके सम्बन्ध में अनेक प्रकार की बातें सोचकर औरंगजेब शंकायें करने लगा। उसने सोचा कि ऐसे मौके पर राठौड़ों के साथ सुलह कर लेना ही बुद्धिमानी है। इसके लिए उसने नारायणदास कुलबी मध्यस्थ बनाया। सुलह की बातचीत आरम्भ हो गयी। सम्वत् 1749 भी बीत गया। संधि की इस बातचीत के दिनों में बादशाह की तरफ से विश्वासघात किया गया , संधि की बातों का कदाचित यही अभिप्राय था कि राठौड़ों को धोखे में रखा जाये । सम्वत् 1750 में जोधपुर, जालौर और सिवाना के मुगल अधिकारियों ने अपनी-अपनी सेनायें एकत्रित की और एक साथ राजकुमार अजीत पर आक्रमण किया। राठौड़ इस आक्रमण के लिए तैयार न थे। इस दशा में राजकुमार अजीत को पहाड़ी स्थानों का आश्रय लेना पड़ा। वह बल्लभवंशी अक्षों को लेकर युद्ध के लिये तैयार हुआ और उसने मुगलों का सामना किया। परन्तु उसे लगातार पराजित होना पड़ा। इसी मौके पर चम्पावत मुकुन्ददास ने मुगलों पर आक्रमण किया। मोकलसर नामक स्थान पर दोनों ओर की सेनाओं का सामना हुआ। इस युद्ध में मुकुन्ददास ने मुस्लिम सेना को पराजित करके चाँक के अधिकारी, उसकी सेना और उसके सामन्तों को कैद कर लिया। ड्स पराजय के बाद मुगलों की शक्तियाँ लगातार कमजोर पड़ने लगीं। सम्वत् 1751 में.मुगलों की परेशानियाँ बहुत बढ़ गयी और उनको विवश होकर राठौड़ों के साथ युद्ध बन्द कर देना पड़ा। मुगल राज्य के कई एक जनपदों ने राठौड़ों की अधीनता मंजूर 432
पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/३८६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।