मुकुन्ददास के इस उत्तर को सुनकर औरंगजेब ने एक अस्वाभाविक हँसी के साथ प्रसन्नता प्रकट की। इस प्रकार की वातचीत मुकुन्ददास के साथ औरंगजेब की और भी हुई थी। किसी समय औरंगजेब ने मुकुन्ददास से कहा : “क्या आप अपने घोड़े पर बैठ करके उसको बड़ी तेजी से दौड़ाते हुए पेड़ की डाली पकड़ कर झूल सकते ? इस प्रश्न को सुनकर स्वाभिमान साथ मुकुन्ददास ने कहा-“मैं बन्दर नहीं हूँ', राजपूत हूँ। राजपूत के समस्त कार्य तलवार के द्वारा होते हैं। किसी राजपूत की तलवार का खेल उस समय देखना चाहिये, जव शत्रु उसके सामने हो।' मुकुन्ददास ने अपने सहज स्वभाव से औरंगजेब को इस प्रकार का उत्तर दिया था। उस समय वह शाहजादा था। परन्तु उसके व्यवहारों में वादशाहत की गन्ध थी इसीलिये मुकुन्ददास ने उसके साथ इस प्रकार की वातचीत की थी। मुकुन्ददास की बातों को सुनकर औरंगजेव को प्रसन्नता नहीं हुई। उसके वाक्यों में जिस स्वाभिमान का प्रदर्शन होता था, औरंगजेव उसे उसका अभिमान समझता था। इसलिये वह सदा उसके सर्वनाश की वात सोचा करता था और उससे ऐसे काम लेना चाहता था, जिससे उसका विनाश हो। इसी उद्देश्य से उसने उसको देवड़ा राजा सुरतान के विरुद्ध युद्ध करने के लिये भेजा । मुकुन्ददास ने विना किसी प्रकार के भय के शाहजादे की आज्ञा का पालन किया और अपनी राठौड़ सेना को लेकर वह रवाना हो गया। सिरोही के देवड़ा राजा सुरतान ने जब मुकुन्ददास को सेना के साथ आते हुये सुना तो वह पहाड़ के कठिन स्थानों पर पहुँच गया। उसका अनुमान था कि वहाँ पर शत्रु का प्रवेश नहीं हो सकता। इस विश्वास पर वह निश्चित भाव से वहाँ रहने लगा। एक दिन रात को सुरतान अपने दुर्ग में निर्भीकता के साथ सो रहा था। उस समय दुर्ग में भीतर से लेकर वाहर तक सन्नाटा था। केवल एक पहरेदार वहाँ पर मौजूद था। उस समय मुकुन्ददास अपनी सेना के साथ बढ़ा और बड़ी सावधानी के साथ वह दीवार पर चढ़ गया। वहाँ पर उसने देखा कि अकेला पहरेदार वहाँ पर खड़ा है। उसने उस पर आक्रमण किया और उसके बाद दुर्ग के उस स्थान में उसने प्रवेश किया, जहाँ पर सुरतान सो रहा था। मुकुन्ददास ने सुरतान को उसकी पगड़ी से चारपाई के साथ वाँध लिया और उस चारपाई को उठाकर वह अपने साथ ले आया।1 मुकुन्दास ने सुरतान को अपनी सेना की सुपुर्दगी में दे दिया। उसके बाद जब राठौड़ सेना वहाँ से लौटने लगी, उस समय देवड़ा की सैना जाग पड़ी और उसके सैनिक को जव मालूम हुआ कि राव सुरतान को शत्रु अपने साथ ले जा रहे हैं तो वे सब मिल कर सुरतान को छुड़ाने की चेष्टा करने लगे। यह देखकर मुकुन्ददास ने गरजते हुये कहा- “देवड़ा के सैनिकों, शांत होकर हमारी वात सुनो । यदि आप लोगों ने इस समय मारकाट की तो मैं राव सुरतान का सिर कटवा लूँगा। इसलिए कि उसकी जिन्दगी इस समय मेरे हाथ में है, यदि आप लोगों ने मेरा कहना मान लिया तो विश्वास रखिये कि राव सुरतान का जीवन पूर्ण रूप से सुरक्षित रहेगा और उसके सम्मान को कुछ भी क्षति न पहुँचेगी।” मुकुन्ददास की इन बातों को सुन कर देवड़ा के सैनिक शांत हो गये। मुकुन्ददास सुरतान को वन्दी वना कर ले गया और राजा जसवन्तसिंह को सौंप दिया। जसवन्तसिंह कुछ लेखकों का कहना है कि सुरतान की मृत्यु बहुत पहले हो चुकी थी । नाहर खाँ के समय में उसका प्रपौत्र देवड़ा अखयराज सिरोही का राव था। 1. 413
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