एक पत्र जसवंतसिंह के पास भेजा, जिसमें उसने जसवंतसिंह को न केवल पूर्ण रूप से क्षमा कर देने का जिक्र किया, बल्कि उसको उसने गुजरात का अधिकारी बना दिया। लेकिन इस शर्त पर कि वह किसी प्रकार दारा की सहायता न करे और हम लोगों के आपसी झगड़े में तटस्थ ही रहे। औरंगजेब ने अपने पत्र में जो शर्ते लिखी थीं, जसवंतसिंह ने वे स्वीकार कर ली। उन दिनों में शिवाजी के साथ दक्षिण में भुगुलों का युद्ध चल रहा था। औरंगजेब ने जसवंत सिंह को वहाँ भेज दिया। दक्षिण में पहुँकर जसवंत सिंह ने वहाँ की परिस्थितियों का अध्ययन किया। अन्तरात्मा से वह औरंगजेब का पक्षपाती न था। शाहजहाँ की सहायता करने के लिये उसने औरंगजेब के साथ युद्ध किया था परन्तु मुगल सेना के विश्वासघात करने से उसकी पराजय हुई थी और उसके बाद जो विरोधी परिस्थितियाँ सामने आयीं, उनसे विवश होकर उसे औरंगजेब की सभी बातें स्वीकार करनी पड़ी। जसवंतसिंह शाहजहाँ के साथ-साथ दारा का पक्षपाती था। परन्तु अपनी अयोग्यता के कारण दारा स्वयं अपनी रक्षा न कर सकता था। उसकी यह अवस्था जसवंत सिंह के लिये बड़ी भयानक थी। परन्तु इस समय उसके सामने कोई प्रतिकार न था। वह दक्षिण में पहुँच गया था और बड़ी सावधानी के साथ वहाँ पर वह अपनी योजनाओं पर विचार कर रहा था। उसने शिवाजी के साथ पत्र-व्यवहार करना आरम्भ किया और उन पत्रों के द्वारा उसने अपना एक नया कार्यक्रम आरम्भ किया। इसके थोड़े ही दिनों बाद औरंगजेब का प्रसिद्ध सेनापति शाइस्ताखाँ शिवाजी के साथ युद्ध करते हुआ मारा गया। उसके मरते ही जसवंत सिंह ने उसके स्थान की पूर्ति की और मुगल सेना का सेनापति होकर शिवाजी के साथ युद्ध आरम्भ किया। सेनापति शाइस्ताखाँ के मारे जाने का समाचार औरंगजेब के पास पहुँचा । इस समाचार के साथ-साथ अपने दूत के द्वारा औरंगजेब ने यह भी सुना कि सेनापति के मारे जाने में जसवंतसिंह का षड़यंत्र है। इसको सुनते ही औरंगजेब के हृदय में आग लग गयी। परन्तु उसने उस समय शान्ति से काम लिया और उसने जसवंत सिंह के पास अपनी इस प्रसन्नता का समाचार भेजा कि उसने सेनापति शाइस्ताखाँ के मारे जाने पर उसके स्थान की पूर्ति की है और मुगलों की फौज में किसी प्रकार की कोई निर्बलता नहीं आने दी। जसवंत सिंह के विरुद्ध औरंगजेब के हृदय में जो आग पैदा हुई, उसको वह अधिक समय तक छिपा न सका । चुपके-चुपके प्रबन्ध करता रहा और जब वह अपनी व्यवस्था कर चुका तो उसने आमेर के राजा जयसिंह को अधिकारी बनाकर जसवंतसिंह के स्थान पर दक्षिण भेज दिया। वहाँ पहुँचकर जयसिंह ने शिवाजी के साथ युद्ध किया और उसको गिरफ्तार करके औरंगजेब के पास भेजा। शिवाजी के जाने पर औरंगजेब ने उसके सर्वनाश की योजना बना डाली। जयसिंह को स्वयं इस बात का विश्वास न था कि औरंगजेब इस प्रकार का विश्वासघात करेगा। उसने शिवाजी को इस उद्देश्य से औरंगजेब के पास नहीं भेजा था। इसीलिए शिवाजी के बन्दी हो जाने पर जयसिंह को मानसिक वेदना हुई। वह किसी प्रकार शिवाजी के छुटकारे की बात सोचने लगा। शिवाजी स्वयं बहुत दूरदर्शी था । बन्दी जीवन से छुटकारा पाने के लिए उसने अनेक उपाय सोच डाले और किसी प्रकार अवसर पाकर वह औरंगजेब के हाथ से निकल गया । 408
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