उसमें बादशाह की निराशा सीमा पार कर गयी। इस असमर्थता के समय सहायता प्राप्त करने के लिये वादशाह ने राजपूतों की तरफ देखा । उसने राजपूत राजाओं को बुलाया और उनके सामने उसने अपनी वर्तमान परिस्थितियाँ रखीं। राजपूत राजाओं ने सभी प्रकार उसको आश्वासन दिया और किसी भी समय उसकी सहायता करने के लिये राजाओं ने वादशाह को वचन दिया, जिनको सुनकर बादशाह को बड़ी शांति मिली। वादशाह के लड़कों में औरंगजेब ने खुल कर विद्रोह किया और उसने वृद्ध शाहजहाँ को सिंहासन से उतार कर उस पर बैठने का निश्चय कर लिया। इस समाचार को जानकर बादशाह ने राजपूत राजाओं के पास सन्देश भेजा। उस सन्देश को पाते ही आमेर का राजा जयसिंह और मारवाड़ का राजा जसवन्तसिंह - दोनों ही वादशाह की सहायता के लिये रवाना हुये। औरंगजेब के साथ-साथ उसका भाई शुजा भी विद्रोही हो चुका था और वह औरंगजेब का साथी वनकर अपनी विद्रोही सेना की तैयारी कर चुका था। इस प्रकार की खबरें वादशाह को मालूम हो चुकी थीं। इसलिये वादशाह ने दोनों विद्रोहियों के दमन का प्रयल किया और उसकी इच्छा के अनुसार राजा जयसिंह शुजा के विरुद्ध और जसवन्तसिंह औरंगजेब के विरुद्ध युद्ध करने के लिये रवाना हुआ।1 जसवन्तसिंह के साथ तीस हजार राजपूतों की एक सेना थी। उसके सिवा उसने अपने अधिकार में मुगलों की एक सेना ली और वह आगरा के लिए रवाना हुआ। जसवन्तसिंह के साथ इस समय एक विशाल सेना हो गयी थी। वह तेजी के साथ नर्मदा की तरफ चला। जिस समय वह उज्जैन के करीब पहुँच गया उसे समाचार मिला कि औरंगजेब अपनी फौज के साथ युद्ध करने के लिये आ रहा है और वह अव अधिक दूर नहीं है। यह सुनकर जसवन्तसिंह की सेना ने वहीं रुककर मुकाम किया। औरंगजेब की फौज ने नर्मदा के किनारे पहुँच कर नदी को पार किया और जहाँ पर वह फौज पहुँच गयी थी, जसवन्तसिंह का शिविर उस स्थान से बहुत दूर न थां। औरंगजेब की फौज के आ जाने का समाचार जसवन्तसिंह को मिला। वह औरंगजेब की तरफ से युद्ध के आरम्भ होने की प्रतीक्षा करने लगा। औरंगजेब युद्ध करने में जितना बहादुर था उससे बहुत अधिक वह राजनीतिज्ञ और षड़यन्त्रकारी था। उसने युद्ध आरम्भ नहीं किया और जहाँ पर उसकी फौज ने मुकाम किया था, वहीं पर तरह-तरह के षड़यन्त्रों की रचना करने लगा। औरंगजेब और शुजा के सिवा बादशाह का लड़का मुराद भी विद्रोही हो चुका था। इसलिये जसवन्तसिंह से युद्ध करने के लिये वह भी अपनी एक फौज लेकर नर्मदा के किनारे पहुँच गया था। औरंगजेव और मुराद की फौजों ने मिलकर जसवन्तसिंह के साथ युद्ध करने का निश्चय किया। जसवन्तसिंह अब भी अपने शिविर में चुपचाप बैठा था। अपनी तरफ से युद्ध आरम्भ करने के पक्ष में वह न था। इसके दो कारण थे। एक तो यह कि उसको अपनी शक्तियों पर विश्वास था और दूसरा यह कि वह वादशाह के पक्ष में उसके लड़कों के साथ युद्ध करने के लिये आया था। इसलिये वह चाहता था कि युद्ध का आरम्भ मेरी तरफ से न होकर औरंगजेब की तरफ से ही होना चाहिये। इस अवस्था में युद्ध रुका और बहुत समय तक किसी ने किसी पर आक्रमण नहीं किया। इसका लाभ औरंगजेब ने उठाया। उसके आते ही यदि जसवन्तसिंह ने एक साथ शाहजहाँ की बीमारी के दिनों में शुजा वंगाल का सूवेदार था। वहीं पर उसने पिता को वीमारी का समाचार सुना और यह भी कि अब उसके वचने की आशा नहीं है। इसलिये सिंहासन पर बैठने का अधिकार प्राप्त करने के लिये जब वह वंगाल से आ रहा था, वनारस के पास दारा के पुत्र सुलेमान शिकोह ने उसके साथ युद्ध किया और उसको परास्त किया। उस लड़ाई में राजा जयसिंह ने सुलेमान शिकोह की सहायता की थी। औरंगजेव उन दिनों में दक्षिण का सूबेदार था। वह आरम्भ से ही भयानक कपटी था। 1. 1 404
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