प्रकार राजसिंहासन पर बैठ कर राज्य सुख का भोग करना चाहता था। मारवाड़ के सामन्तों से उदयसिंह की यह अवस्था छिपी न थी। उसका छोटा भाई चन्द्रसेन इन्हीं कारणों से उसका विरोधी था। इन्हीं कारणों के फलस्वरूप दोनों भाइयों में संघर्ष पैदा हो गया था। वहाँ के सभी श्रेष्ठ सामन्तों ने चन्द्रसेन का समर्थन किया था। आरम्भ से लेकर उदयसिंह के समय तक मारवाड़ के शासन की हम यहाँ पर कुछ आवश्यक आलोचना करने की चेष्टा करेंगे। शुरू से लेकर उदयसिंह के समय तक मारवाड़ का इतिहास तीन प्रमुख भागों में दिखाई देता है और वह इस प्रकार है : (1) खेड़-राज्य में सिहाजी के सन् 1212 ईसवी में आने से लेकर सन् 1381 ईसवी में चूंडा द्वारा मन्दोर जीतने के समय तक । (2) मन्डोर जीतने के समय से लेकर जोधपुर की प्रतिष्ठा के समय सन् 1459 ईसवी तक। (3) जोधपुर की प्रतिष्ठा के समय से उदयसिंह के राज्य सिंहासन पर बैठने के समय सन् 1584 ईसवी तक, जब राठौड़ों ने मुगलों की पराधीनता को स्वीकार किया। इन चार सौ वर्षों में राठौड़ों का ऐतिहासिक जीवन किस प्रकार व्यतीत हुआ, यहाँ पर उसकी स्पष्ट आलोचना करने की आवश्यकता है। आरम्म में बहुत दिनों तक भूमिया लोगों से मरुभूमि का पश्चिमी भाग प्राप्त करने में समय व्यतीत हुआ। उन दिनों में वहाँ का जितना भाग उनको प्राप्त हो सका था, उसी पर उनको सन्तोष करना पड़ा। उसके बाद मन्डोर नगर पर विजय प्राप्त करने पर लूनी नदी के दोनों तरफ की उपजाऊ भूमि रणमल्ल और जोधा के लड़कों के अधिकार में आ गयी। इसके पश्चात् जोधपुर नगर बसाया गया और इसके तैयार हो जाने पर राठौड़ों की राजधानी जोधपुर में पहुँच गयी। रावजोधा के तेईस भाई थे, उनमें कोई भी उत्तराधिकार प्राप्त करने की योग्यता न रखता था। इसी बात को दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि उनमें कोई भी उत्तराधिकारी होने के योग्य न था। राज्य के हित के लिये यह आवश्यक था कि उन तेईस के सिवा किसी अन्य को जो सभी प्रकार सक्षम और योग्य हो, उत्तराधिकारी बनाया जाये और ऐसा किसी निकटवर्ती को प्राप्त करके किया जा सकता था। परन्तु जोधा ने इस बात का अपने यहाँ एक विधान बना लिया था कि उसके वंशजों के अतिरिक्त दूसरा कोई जोधपुर के सिंहासन पर नहीं बैठ सकता। जो राठौड़ मारवाड़ के सामन्त हैं, उनमें से किसी को जोधपुर के सिंहासन पर बैठने का अधिकार नहीं है। इस प्रकार जोधा ने अपने यहाँ एक निश्चित व्यवस्था बना ली थी, जिसका वर्णन भली प्रकार अजमेर के इतिहास में किया गया है। सिहाजी के वंशजों में जोधाराव ने प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। अपनी उस प्रतिष्ठा को वह स्वयं भी अनुभव करता था। उसने अपने राज्य की जागीरदारी प्रथा के नियमों को बदलने का भी काम किया था। उसके पिता रणमल्ल के चौवीस लड़के थे और उनमें से वह स्वयं एक था। उसके चौदह पुत्र पैदा हुये थे। इन सबको देखकर उसको इस बात का ख्याल हुआ कि इन सबके जो सन्तानें पैदा होंगी, उनकी संख्या बहुत बढ़ जायेगी और जागीरदारी प्रथा की पुरानी व्यवस्था के अनुसार जो जागीरें दी जायेगी, उनसे राज्य की सम्पूर्ण भूमि बहुत से टुकड़ों में बँट जायेगी। उस दशा में भूमि के प्रश्न को लेकर विवाद पैदा होना बहुत स्वाभाविक हो जायेगा। इसलिये भविष्य में पैदा होने वाले इन विवादों को रोकने का रणमल्ल को पिछले पृष्ठों में बहुत से स्थानों पर रिडमल्ल भी लिखा गया है। दोनों नाम एक ही है। सही नाम के लिखने में कहीं-कहीं बड़ी भूल हुई है। - अनुवादक 1. 392
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