शेरशाह ने जो पत्र भेजकर राजा मालदेव के साथ पड़यन्त्र किया था, उसके रहस्य को मालदेव समझ न सका । उसने उस पत्र पर पूरा विश्वास किया और उस पत्र को पाने के बाद उसका सम्पूर्ण विश्वास सरदारों से हट गया। अपने मन की इस परिस्थिति में उसने मन्त्रियों और सरदारों से एक बार भी बात करने का विचार न किया। बादशाह शेरशाह से युद्ध करने के लिये उसने जो पचास हजार राजपूतों की सेना तैयार की थी, वह अभी तक मारवाड़ की राजधानी में मौजूद थी। युद्ध के सम्बन्ध में राजा मालदेव क्या सोच रहा है, इस बात को वहाँ पर कोई न जानता था। राजा मालदेव के शूरवीर सरदार युद्ध की प्रतीक्षा कर रहे थे और राजा मालदेव सरदारों से अपना विश्वास खोकर मन की ऐसी क्षत-विक्षत अवस्था में था, जिसमें यह सोच सकना उसके लिये असम्भव हो गया था कि अब उसे भयंकर विपद के समय क्या करना चाहिये। बादशाह शेरशाह अपने शिविर में बैठा हुआ मारवाड़ की इन भीतरी परिस्थितियों का अध्ययन कर रहा था। उसने जो षड़यन्त्र रचा था, उसमें उसे पूर्ण रूप से सफलता मिली। उसने अपने पड़यन्त्र के द्वारा मालदेव और उसके सरदारों के बीच का सुदृढ़ विश्वास नष्ट कर दिया। मालदेव को यह विश्वास पूरी तौर पर हो गया कि मेरे सभी सरदार शत्रु से मिले हुये हैं। इस दशा में उसने युद्ध स्थगित कर दिया और कर्तव्यहीन होकर वह अपनी राजधानी में बैठा रहा। शेरशाह को जब मालदेव की इन भीतरी परिस्थितियों का सही समाचार मिल गया तो उसने अवसर का लाभ उठाया और मारवाड़ पर आक्रमण करने का निश्चय किया। राजा मालदेव और उसके सरदारों ने अपनी राजधानी में बैठकर सुना कि शेरशाह की विशाल फौज. मारवाड़ में प्रवेश करने की तैयारी कर रही है। राजा मालदेव ने अपने अविश्वास के सम्बन्ध में न तो सरदारों से कोई बातचीत की और न उसने शत्रु से युद्ध करने का कोई कार्यक्रम बनाया। वह इस भीषण विपद के समय क्यों चुपचाप बैठा हुआ है, मारवाड़ के सरदारों को इसका कुछ भी पता न था। इस अनिश्चित अवस्था में सरदारों ने राजा मालदेव से मिलकर बातचीत की। उसके अविश्वास का रहस्य सरदारों को मालूम हो गया। परन्तु वे मालदेव के मन में उत्पन्न होने वाले सन्देह को मिटा न सके। सभी सरदारों ने मालदेव के भ्रम को दूर करने के लिये बुड़ी-से-बड़ी चेष्टायें की परन्तु उनको सफलता न मिली। मालदेव के मन में जो सन्देह और अविश्वास पैदा हो गया था, वह ज्यों का त्यों कायम रहा। शेरशाह की फौज ने मारवाड़ के बाहर मुकाम किया और वहाँ रह कर उसने पूरा एक महीना व्यतीत किया। शेरशाह की चालों से राजा मालदेव और सरदारों में जो फूट पैदा हुई, वह मिट न सकी। सरदारों का विश्वास खोकर राजा मालदेव किसी प्रकार शत्रु के साथ युद्ध करने का साहस न कर सका। सरदारों के बातचीत करने पर भी जब कोई परिणाम न निकला तो ठीक उन्हीं दिनों में सरदारों ने राजा मालदेव से निराश होकर अपने अधिकार के बारह हजार राजपूत सैनिकों को तैयार किया और राजधानी से निकल कर वे लोग उसु मुकाम की तरफ रवाना हुये, जहाँ पर शेरशाह की फौज मौजूद थी। बड़ी तेजी के साथ वहाँ पर पहुँचकर मारवाड़ के राजपूतों ने बादशाह के शिविर पर आक्रमण किया। उसके साथ ही भीषण मार-काट आरम्भ हो गयी। शेरशाह की विशाल सेना ने सम्हल कर अपनी पूरी शक्ति के साथ राजपूतों से युद्ध आरम्भ किया। बादशाह की फौज के मुकाबले में राजपूतों की संख्या बहुत कम थी। इसलिये युद्ध में राजपूत अधिक मारे गये। राजा मालदेव ने जब युद्ध का समाचार सुना और उसे मालूम हुआ कि राज्य के सरदार और उनके साथ के थोड़े से सैनिक बादशाह की बहुत बड़ी फौज के साथ युद्ध में - । 388
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