का होता है और रामचन्द्र से युधिष्ठिर तक 1100 वर्ष का समय ऊपर लिखा जा चुका है। इसका अर्थ यह निकलता है कि सूर्यवंश के प्रतिष्ठाता इक्ष्वाकु से सुमित्र तक का समय 2200 वर्षों का होता है। पांडुवंशी युधिष्ठिर की सन्तानों के इंदुवंशु की वंशावली राजतरंगिणी और राजावली से ली गयी है। ये दोनों पुस्तकें प्रामाणिक हैं। जो राजवंशों के इतिहास और उनकी वंशावली के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं। इन पुस्तकों में युधिष्ठिर से विक्रमादित्य तक इन्द्रप्रस्थ और दिल्ली में शासन करने वाले सभी वंशों की वंशावलियाँ दी गयी हैं। 'तरंगिणी' जैन देवताओं की वंशावली की पुस्तक मानी जाती है। इसलिए उसका आरंभ आदिनाथ अथवा ऋषभ देव से किया गया है। ऊपर जिन राजवंशों के विवरण दिये जा चुके हैं, इस पुस्तक में उन वंशों के प्रसिद्ध राजाओं के नाम देकर धृतराष्ट्र और पांडु एवं उनकी संतान की उत्पत्ति के विवरण भी दिये गये हैं। यहाँ पर यह लिखना अप्रासंगिक न होगा कि पूर्व और पश्चिम के सभी देशों में राजवंशों की उत्पत्ति लिखने के समय बहुत कुछ आधार कल्पनाओं का लिया गया है। हिन्दू ग्रंथों में पांडु की उत्पत्ति ठीक उसी प्रकार की कल्पित कथाओं के साथ पढ़ने को मिलती है। जिस प्रकार पश्चिमी देशों में रोमूलस' की उत्पत्ति । पांडु की मृत्यु के बाद धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन ने हस्तिनापुर में उपस्थित समस्त बंधुओं के सामने पांडवों के जन्म को कलंक पूर्ण बतलाया था। लेकिन इसका कोई प्रभाव न पड़ा था और पांडव बंधुओं में ज्येष्ठ पुत्र युधिष्ठिर को हस्तिनापुर के राज सिंहासन पर बैठने का अधिकार मिला था। इस प्रकार युधिष्ठिर को राज्याधिकार मिलने में समस्त ब्राह्मणों और पंड़ितों ने सहायता की थी। पांडवों के विरुद्ध दुर्योधन तरह-तरह के षडयंत्र करने में लगा रहा और उसकी कूटनीति से व्यथित होकर पांचों पांडवों ने राजधानी छोड़कर कुछ समय के लिये गंगा के किनारे कहीं जाकर समय बिताने का निश्चय किया। इस निश्चय के अनुसार सिन्धु नदी के समीपवर्ती देशों की तरफ वे चले गये। उस अवस्था में पांचाल के राजा द्रुपद ने अपने यहाँ उनको स्थान देकर उनकी सहायता की। राजा द्रुपद् की राजधानी कम्पिलनगर में थी। उसी अवसर पर राजा द्रुपद की राजधानी में आस-पास के अनेक राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपदी के स्वयंवर में आये हुए थे। उस स्वयंवर में द्रौपदी ने अर्जुन के गले में वरमाला पहनायी। उस पर उपस्थित राजाओं ने अर्जुन के साथ युद्ध किया लेकिन अर्जुन के साथ युद्ध में सभी पराजित हुए और द्रौपदी अर्जुन के साथ जाकर पांचों भाइयों की स्त्री हुई। विवाह की इस प्रकार की प्रथा शक लोगों में भी पाई जाती है। 1. रोमूलस ने रोम नगर की स्थापना की थी। उसकी उत्पत्ति के विषय में कहा जाता है कि विष्ठा नाम की एक प्रसिद्ध देवी थी । उसकी पूजा करने वाली लड़कियाँ आजन्म अविवाहित रहती थीं। यदि उस देवी की कोई पुजारिन अपना सतीत्व भ्रष्ट करने के अपराध में पाई जाती थी तो उस अपराध के दंड में उसको जीवित जमीन में गड्ढा खोदकर गाड़ दिया जाता था और उसके गर्भ से उत्पन्न होने वाली संतान को टाइबर नदी में फेंक दिया जाता था। सिल्विया नामक एक महिला उस देवी की पुजारिन थी। उससे भी इसी प्रकार का अपराध हुआ और मार्स अर्थात् मंगल देवता से उसके दो बेटे पैदा हुए । माँ और बेटों के साथ वही किया गया, लेकिन बेटे किसी प्रकार बच गये । उन दोनों पुत्रों का पालन-पोषण जंगल में रहने वाली एक कुतिया ने अपना दूध पिला कर किया। रोमूल उन दो पुत्रों में से एक था। एक स्त्री के एक से अधिक पतियों का होना प्राचीन काल में एक साधारण रस्म थी । जैसाकि हेरोडोटस ने शक जाति के सम्बंध में लिखा है और सीथियन लोगों की बहुत सी इस प्रकार की बातों का उल्लेख किया । विवाह की एक रस्म यह भी उस समय पाई जाती थी, परन्तु हिन्दू टीकाकारों ने इस ऐतिहासिक सत्य पर धूल डाल कर द्रौपदी के पाँच पतियों के सम्बंध में अर्थहीन बातों की जनश्रुति पैदा करने में सहायता की - 1 2. 33
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