गया। उदयपुर से एक कोस की दूरी पर हम सब का स्वागत करने के लिये एक स्थान सजाया गया था। वहाँ पर शुतंरजियाँ बिछी थीं और उनके ऊपर बड़ी खूबसूरती के साथ गलीचे बिछाये गये थे। वहाँ पर सबसे पहले मैंने राजकुमार जवानसिंह को देखा। उसका सुन्दर बदन, शिष्टाचार, स्वाभिमान, विनम्रभाव और अच्छा व्यवहार देखकर मैं बहुत प्रभावित हुआ। इसके पहले भी मैंने एक बार उसे देखा था। उस समय वह छोटा था। उसके आज व्यवहारों के प्रति मैंने उस समय उसको देखकर कल्पना नहीं की थी। सूरजद्वार से होकर मैंने उदयपुर में प्रवेश किया। रास्ते में दोनों तरफ सुन्दर वृक्ष लगे हुये थे। वहाँ का दृश्य देखकर इस बात का सहज ही आभास होता था कि जहाँ से हम लोग गुजर रहे हैं, पूरी तरह से वीरान हो चुका है। जहाँ से हम लोग चल रहे थे, रामप्यारी का महल भी वहीं पर था। रामप्यारी का उल्लेख पहले किया जा चुका है। यह महल राजपूताना के अन्यान्य महलों के समान कई मंजिलों का बना था। उसकी सुन्दरता और श्रेष्ठता प्रशंसा के योग्य थी। उसका निर्माण अन्य महलों के समान हुआ था। आस-पास की ऊँची दीवारों पर अद्भुत नक्काशी का काम था और महल के भीतर मनोहर कमरे और दालानें थीं। बीच में खुला हुआ दीवानखाना था। वहीं पर हम लोगों के स्वागत की तैयारियाँ थीं। बाद में हमें रहने के लिए यही महल मिल गया था। इस महल के एक भाग में हम लोगों के खाने के लिए भोजन बना था। उस भोजन में मीठी, नमकीन बहुत-सी चीजें थीं। खाने के पदार्थों में अनेक प्रकार के फल भी थे। वहाँ पर एक हजार रुपये की एक थैली भी रखी थी। रुपये उन लोगों में बाँटे जाने के लिए थे, जिन्होंने हम सब के आने का पहले पहल समाचार राणा को दिया था। इस प्रकार का पुरस्कार देना राजपूतों की एक पुरानी प्रथा के अनुसार था । राणा से भेंट के लिए दूसरा दिन निश्चित हुआ। लेकिन उसी दिन शाम को चार बजे राणा के आदमियों से समाचार मिला कि राणा ने आप से मिलने का प्रबन्ध आज ही किया है। इस समाचार के बाद कुछ समय में लोगों की भीड़ दिखायी पड़ने लगी। भीड़ के 'लोग दूर से हम लोगों की तरफ देख रहे थे। राजभवन में जाने के लिए हम लोग अपने स्थान से रवाना हुए। आगे बढ़ते हुए हम लोगों ने लोगों को नारे लगाते हुए सुना - “जय जय फिरंगी राज !” राज्य के भाट लोग मेरे नाम का प्रयोग अपनी कविताओं में करके जोर के साथ कवितायें कह रहे थे और स्थान-स्थान पर अनेक प्रकार के बाजे बज रहे थे, उनके द्वारा हम सब के स्वागत की खुशी मनायी जा रही थी, स्वागत में हम लोगों ने स्त्रियों को राजस्थानी भाषा में गाना गाते हुये सुना। जिस मार्ग से हम लोग जा रहे थे, वह दर्शकों की भीड़ से भरा हुआ था। राजभवन के समीप आ जाने पर हम लोगों ने हाथी और घोड़ों से उतर कर पैदल चलना शुरू किया और कुछ ही देर में राजभवन में प्रवेश किया। वहाँ पर ऊँचे और विस्तृत चबूतरे बने हुए थे जिनमें हाथी और घोड़े अपना खेल दिखा रहे थे। राजभवन की बनावट अत्यन्त सुन्दर और सुदृढ़ है, उसमें संगमरमर और दूसरे मजबूत पत्थर लगे हुए हैं। जमीन से उसकी ऊँचाई एक सौ फीट है। राजभवन के प्रत्येक पार्श्व में आठ कोने के बुों पर गुम्बज बने हुये हैं। पर्वत के ऊपर होने के कारण वे बहुत ऊँचे मालूम होते हैं। बुर्ज के ऊपर चढ़ कर देखने से पर्वत के सभी दृश्य साफ-साफ दिखायी देते हैं। भवन के बाहर-बड़े द्वार पर सिंधी सिपाहियों का पहरा था। राजभवन से दीवानखाने तक दोनों तरफ राजपूत सशस्त्र खड़े हुए थे। राजभवन के भीतर एक गणेश दरवाजा है, उस द्वार से होकर दीवानखाने जाना पड़ता है। पत्थरों से बनी हुई दीवानखाने की सीढ़ियों को हम लोगों ने पार किया। आगे बढ़ने पर हमको चोपदार मिले, जो किसी के आगमन की सूचना राणा को देते थे। उनके दलानों को पारकर दीवानखाने में जाना पड़ता 316
पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/३१६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।