अध्याय-27 अंग्रेजों के साथ राणा की संधि व राज्य में सुधार दृसरी शताब्दी से लेकर उनीसवीं शताब्दी तक राणा के वंश का इतिहास लिखा जा चुका है और उसके सौभाग्य एवम् दुर्भाग्य की सभी घटनाओं पर गम्भीरता के साथ प्रकाश डाला जा चुका है। पारसियों, भीलों, तातारियों और मराठों ने समय-समय पर लगातार याक्रमणों के द्वारा जिस प्रकार इस प्रसिद्ध वंश और उसके राज्य को क्षत-विक्षत करके श्मशान बना देने का काम किया, उसको स्पष्ट रूप से लिखा जा चुका है। मेवाड़ की उजड़ी हुई अवस्था में मराठों की लूट आरम्भ हुई और उनकी अमानुपिक निष्ठुरता ने उस राज्य के जीवन में केवल हड्डियाँ और पसलियाँ वाकी रखी। इन दिनों में पश्चिमी देशों के व्यवसायी कम्पनियाँ बना-बनाकर व्यवसाय के लिए इस देश में आ चुके थे। अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी भी उनमें से एक थी। इस कम्पनी के अंग्रेजों ने बड़ी राजनीति से काम लिया। राजस्थान के प्रसिद्ध, राज्य मेवाड़ के संकटों में उन लंगों ने अपनी उदारता प्रकट की। देश में घरेलू विद्रोह की भीषण आग जल रही थी। अंग्रेजों को विद्रोह के इन दिनों में अपना अस्तित्व कायम करने का अवसर मिला। धीरे-धीरे उनकी शक्तियाँ मजबूत बन गयी। पीड़ित प्रजा और राजाओं को मिलाकर एक बड़ी शक्ति अंग्रेजों ने अपने पक्ष में की देशी राज्यों की शक्तियां पहले से ही छिन्न-भिन्न यों,मराठों को छोड़कर अन्य किसी जाति में संगठन न था। विरोधी शक्तियों के मुकाबले अंग्रेजों ने देशी राज्यों को मिलाकर एक महान शक्ति का निर्माण किया। अंग्रेजों की तरफ से एक घोषणा की गयी कि आततायियों और लुटेरों को रोकने के लिए इस देश में एक ऐसा संगठन किया जायेगा, जिसके द्वारा निर्वल राज्यों की रक्षा हो सके और कोई शक्तिशाली आक्रमण करके उसको लूट न सके । उस समय जितने निवल नागरिक रोज लूटे और मारे जा रहे थे, इस घोषणा को सुनकर सभी असन्न हो उठे। उन्होंने एक बार सुख और संतोष की साँस ली ! घोषणा के अनुसार दिल्ली में एक सभा की गयी। जयपुर के अतिरिक्त शेष राजाओं के प्रतिनिधियों ने उसमें भाग लिया और उस उद्देश्य को स्वीकार किया। उस सभा को सफलता मिली और उसके द्वारा इस देश के राजाओं की बागडोर अंग्रेजों के हाथों में पहुँच गयी। एक संधि पत्र लिखा गया, उसमें इस बात को स्वीकार किया गया कि राजपूत अपनी स्वतन्त्रता को कायम रखें, लुटेरे शत्रुओं से अंग्रेज सरकार उनकी रक्षा करेगी और इस कार्य के लिए देशी राज्य अंग्रेजों 314
पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/३१४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।