साथ उन रानियों की तरफ से युद्ध किया। उन लोगों में लखवादादा, खीची का राजा दुर्जनसाल और दतिया का राजा प्रमुख था। इन सभी लोगों ने सिंधिया की विधवा रानियों की सहायता की । लखवादादा ने मेवाड़ के राणा को इस आशय का एक गुप्त पत्र भेजकर अनुरोध किया कि आप किसी भी दशा में अम्बाजी को राज्य में अधिकारी न मानें और जो लोग उसकी तरफ से राज्य में प्रबन्ध करते हैं, उनको राज्य से निकाल दें। इसके पहले जिन शैनवी1 सरदारों को मार डाला गया था, वे सब लखवादादा के पक्ष में थे। मेवाड़-राज्य में उनकी बहुत सी जमीन थी। अम्बा जी ने गणेशपंत को लिखा कि मेवाड़ की जो जमीन शैनवी ब्राह्मणों के अधिकार में है, वह सब उनसे ले लो। अम्बा जी के इस आदेश को पाकर गणेशपंत ने राणा के मंत्री और सरदारों को बुलाकर परामर्श किया। मन्त्री और सरदार उसकी हाँ में हाँ मिलाते रहे। लेकिन वे वास्तव में गणेशपंत के समर्थक न थे। राणा के मंत्री और सरदारों ने गणेशपंत को धोखे में रखा। इसी अवसर पर उन लोगों ने शैनवी ब्राह्मणों के पास गणेशपंत पर आक्रमण करने का संदेश भेजा। इस सन्देश को पाते ही एक सेना लेकर शैनवी लोग रवाना हुए । उनका सामना करने के लिए गणेशपंत अपनी सेना के साथ जावद की तरफ चला। साला नाम के स्थान पर दोनों ओर की सेनाओं का सामना हुआ। युद्ध में गणेशपंत की पराजय हुई। उसकी सेना के आदमी अपने प्राण बचाकर भागे। गणेशपंत के अधिकार में जो युद्ध की सामग्री थी, तोपों और बन्दूकों के साथ वह सब शैनवी लोगों को मिली। इस लड़ाई में गणेशपंत की बहुत हानि हुई। वह युद्ध स्थल से चित्तौड़ की तरफ भागा। चूंडावत लोगों ने उसको रोक कर फिर से उसे युद्ध करने के लिए तैयार किया और सहायता देने का वादा किया । नाना गणेशपंत ने उन लोगों का विश्वास करके युद्ध की फिर से तैयारी की और अपनी सेना को एकत्रित करके उसने शैनवी लोगों के साथ फिर युद्ध किया। चूँण्डावत लोगों ने गणेशपंत की सहायता न की और वह दूसरी बार भी पराजित होकर हमीरगढ़ की तरफ चला गया। जिन चूँण्डावतों ने सहायता देने के लिए नाना गणेशपंत से वादा किया था, उन्होंने उसके शत्रुओं से मिल कर और उनके पन्द्रह हजार सैनिकों को लेकर हमीरगढ़ को घेर लिया। नाना गणेशपंत ने अपनी रक्षा के लिए बड़े साहस के साथ नौ बार उनसे युद्ध किया। परन्तु किसी में उसको विजय न मिली । हमीरगढ़ के राजा धीरजसिंह के दो लड़के इन युद्धों को मारे गये। नाना गणेशपंत की पराजय के समाचार जब अम्बा जी को मिले तो उसने गुलाबराव कदम नाम के सेनापति के साथ अपने कुछ सैनिक सवारों को भेजा। उन दिनों में नाना गणेशपंत शत्रुओं के बीच में घिरा हुआ था। अम्बा जी को भेजी हुई सेना को सहायता से वह शत्रुओं के घेरे से निकल सका और अपने बचे हुए सैनिकों के साथ वह अजमेर की तरफ चला गया। उसके कुछ दूर निकल जाने के बाद मूसामूसी नामक स्थान पर शत्रुओं ने उसे फिर घेर लिया। नाना गणेशपंत को उनके साथ फिर युद्ध करना पड़ा। चूँण्डावत लोगों ने इस लड़ाई में भयानक मारकाट की। गणेशपंत की सेना पीछे हटने लगी। इसी समय बड़े जोर की आवाज सुनायी पड़ी - "भागो ! भागो!” इस आवाज को सुनते ही दोनों तरफ के सैनिक आश्चर्यचकित हो उठे। इसी समय फिर सुनायी पड़ा-“मिल गयी ! मिल गयी !" मराठा बाह्मण तीन भागों में विभाजित है-शैनवी, पूर्वा और माहरत। लखवादादा, वल्लभा, सांतिह, जीवदादा, शिवानी नाना, लालजी पंडित और जसवन्त सिंह भाऊ मेवाड़ की उस भूमि को अधिकारा में रखते थे, जो राणा की तरफ से उनके पास गिरवी रखी गयी थी। 1. 297
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