सिंधी सेना के सैनिकों का जो वेतन वाकी था, सबका हिसाब लगाया गया और अमरचंद ने उनके बाकी वेतन को अदा करने के लिए इंतजाम किया। मेवाड़-राज्य के खजाने में जो भी सम्पत्ति थी, उसको अमरचन्द ने अपने अधिकार में लेने की कोशिश की। खजाने के अधिकारियों को जब यह समाचार मिला तो वे सव अपने स्थानों से भाग गये। इसलिए कि अमरचंद ने उनसे खजाने की चाबियाँ माँगी थी। इस दशा में खजाने के ताले और मजबूत दरवाजे तोड़े गये और सोना, चाँदी, हीरा, जवाहरात मिला कर जितनी भी सम्पत्ति खजाने में मौजूद थी, उसके द्वारा सिंधी सेना का बाकी वेतन अदा किया गया। उसी सम्पत्ति से युद्ध के अस्त्र-शस्त्र खरीदे गये। गोला, गोली और बारूद एकत्रित किया गया। खाने-पीने की सामग्री का प्रबंध बहुत बड़ी तादाद में किया गया। इस प्रकार खजाने की. सम्पत्ति का उपयोग करके अमरचन्द ने छ: महीने तक शत्रु सेना को आगे नहीं बढ़ने दिया । रत्नसिंह ने इन दिनों में उदयपुर के कितने ही स्थानों पर अधिकार कर लिया था। इसके पहले उसने सिंधिया की सहायता लेने के समय एक निश्चित और लंबी रकम देने का वादा किया था। उस रकम की अदायगी वह न कर सका। इस दशा में मराठों ने-जो अभी तक रत्नसिंह की सहायता कर रहे थे-अमरचन्द के साथ संधि करने की कोशिश की और उन लोगों ने संधि की शर्तों में अमरचन्द से सत्तर लाख रुपये की माँग की। साथ ही वादा किया कि इस संधि के बाद हम लोग रत्नसिंह की सहायता न करके वापस चले जायेंगे। अमरचन्द ने सिंधिया के साथ संधि करना मंजूर किया । संधि का पत्र लिखा गया और दोनों तरफ से उस संधि-पत्र पर हस्ताक्षर भी हो गये। इसी अवसर पर सिंधिया को अमरचन्द की कमजोरियाँ मालूम हुईं। उसे विश्वास हो गया कि ऐसे अवसर पर अमरचन्द से और भी रुपया लिया जा सकता है। इसीलिए उसने संधि-पत्र के सत्तर लाख रुपये के अतिरिक्त बीस लाख रुपयों की और माँग की। सिंधिया की इस नयी माँग से अमरचन्द बहुत क्रोधित हुआ। उसने लिखे गये संधि-पत्र को फाड़ डाला और उसके टुकड़ों को सिंधिया के पास भेज दिया। इस प्रकार जो संधि हुई थी, वह खत्म हो गयी। अमरचन्द सिंधिया से निराश होकर अपनी रक्षा के नये-नये उपाय सोचने लगा। वह विपदकाल में साहस से काम लेना जानता था। उसने राज्य के योग्य और शूरवीरों के साथ परामर्श किया। उसे इस समय इस बात का यकीन हो गया कि आपत्तियों के दिनों में ही मनुष्य के पुरुषार्थ की वृद्धि होती है । सिंधी सेना के बाकी वेतन की अदायगी हो चुकी थी। इसलिए उस सेना की शुभकामनायें फिर मेवाड़-राज्य के साथ हो गयी थीं। जो राजपूत और सरदार राणा के विरोधी और विद्रोही थे, अमरचन्द ने उनको मिलाने के लिये बड़ी बुद्धिमानी से काम लिया। वह स्वयं साहसी था और दूसरों को अपना बनाना जानता था। उसके बोलने और समझाने का दूसरों पर जादू की तरह प्रभाव पड़ता था। उसमें चरित्र का बल था। उसमें योग्यता और दूरदर्शिता थी। राज्य की जो सम्पत्ति उसके अधिकार में आयी थी, उसका उपयोग उसने राज्य की प्रजा के हित के लिए किया । जिनके द्वारा राज्य की रक्षा हो सकती थी, उनको प्रसन्न करने के लिए उसने राज्य की सम्पत्ति को पानी की तरह खर्च किया और समस्त प्रजा में सुख तथा संतोष पैदा करने के लिए उसने उस संपत्ति का अच्छा उपयोग किया। राज्य के खजाने में अब तक जो बहुमूल्य हीरे और जवाहरात बेकार पड़े थे, उनको बेचकर अमरचन्द ने खाने के अनाजों का संग्रह किया। राणा अरिसिंह की अयोग्यता के कारण राज्य में अनाज का बड़ा अभाव हो गया था और वह इतना महँगा बिक रहा था कि जिससे बहुत बड़ी संख्या में राज्य के परिवार बहुत दिनों से पेट-भर भोजन न कर सकते थे। प्रजा की यह तवाही राणा और राज्य के लिए अभिशाप हो गयी थी। 281
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