पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२७०

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मालवा और गुजरात में अपने अधिकारों को मजबूत बनाकर मराठों ने दूसरे स्थानों पर अधिकार करने का इरादा किया। वे टिड्डी दल के समान नर्मदा नदी के पार उतर कर उत्तरी भाग के स्थानों और नगरों पर आक्रमण करने लगे। उनके अत्याचारों को देखकर किसानों और मजदूरों ने अपने हाथों में हथियार लिए। जिन लोगों के आक्रमण उन दिनों में हो रहे थे, उनमें बाजीराव के मराठा प्रमुख थे। इन लोगों ने कमजोर राजपूत राज्यों को लूटने और बरबाद करने का काम आरम्भ किया और कुछ स्थानों में वे आबाद भी हो गये। उनका संगठन मजबूत था। राष्ट्रीयता के आधार पर उन मराठों ने अपना संगठन किया था। सन् 1735 ईसवी में मराठों का वह दल चम्बल नदी को पार करके दिल्ली में पहुँच गया और दिल्ली में भयानक उत्पात आरम्भ किया। उनके अत्याचारों से घबरा कर मुगल बादशाह ने मराठों को चौथ अर्थात् साम्राज्य की आमदनी का चौथाई भाग देना मन्जूर किया और इस प्रकार उसने अपनी जान बचाई। मुगल बादशाह की इस कायरता को देखकर निजाम भयभीत हो उठा। वह सोचने लगा कि दिल्ली के बाद मराठा लोग निजाम राज्य पर आक्रमण करेंगे। इसलिए उसने मालवा से मराठों को निकाल देने का इरादा किया। उसको इस बात का विश्वास हो रहा था कि यदि मराठों ने मालवा अपना शासन मजबूत बना लिया तो फिर उनको वहाँ से निकालना बहुत मुश्किल हो जायेगा। इस प्रकार निर्णय करके निजाम ने अपनी सेना लेकर मालवा पर आक्रमण किया और बाजीराव को पराजित किया। इसी अवसर पर उसे समाचार मिला कि हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने के लिये बादशाह नादिरशाह की शक्तिशाली सेना आ रही है । यह सुनते ही निजामुल-मुल्क अनेक प्रकार की चिन्ताओं में पड़ गया। वह मालवा में मराठों को छोड़कर अपने राज्य में लौट आया। मुगल राज्य की शक्तियों का इन दिनों में अन्त हो चुका था। शत्रुओं का सामना करने की अब उसमें कोई शक्ति बाकी न रह गयी थी। काबुल को अपने अधिकार में लेकर विजयी सेना के साथ नादिरशाह ने हिन्दुस्तान की सीमा में प्रवेश किया। उसके इस आक्रमण के समय राजस्थान के राजा चुप होकर बैठ गये । मुगल बादशाहत निर्बल हो चुकी थी और मुल्क के सभी राजा और नवाब अपनी-अपनी स्वतन्त्रता के लिए लड़ रहे थे। सभी के सामने व्यक्तिगत स्वार्थ का प्रश्न था। देश के सार्वजनिक हितों की तरफ किसी का ध्यान न था। नादिरशाह के होने वाले आक्रमण का समाचार सुनकर निजाम भयभीत हो रहा था। सआदत खाँ इन दिनों में मुगल बादशाह का मंत्री था। जिन राजपूतों के बल पर मुगल-राज्य का विस्तार हुआ था, अब उनसे मुगलों को कोई आशा न रह गयी थी। जिन हिन्दु राजाओं ने मुगल शासन के गौरव को बढ़ाने के लिए अपना खून बहाया था, वे इस समय बादशाह के संकट को दूर से देख रहे थे। निजाम अपनी सेना के साथ मुगल सेनापति के नेतृत्व में युद्ध के लिए रवाना हुआ। बादशाह की तरफ से अमीरुल-उमरा मुगलों की एक बड़ी सेना लेकर आगे बढ़ा। सन् 1740 ईसवी में करनाल के मैदान में इन सेनाओं ने नादिरशाह की फौज के साथ युद्ध किया। भीषण संग्राम के बाद मुगलों की पराजय हुई। अमीरुल-उमरा मारा गया । सआदतखाँ गिरफ्तार हो गया और मोहम्मद शाह तथा उसका राज्य नादिरशाह के अधिकार में आ गया। अमीरुल-उमरा के मारे जाने पर निजाम को नादिरशाह ने अमीरुल-उमरा का अधिकार दिया। सआदतखाँ को निजाम की इस राजनीतिक सफलता से बड़ी ईर्ष्या पैदा 270