पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२६१

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शाहआलम ने बादशाह बनने के बाद राजपूतों से टूटते हुए सम्बन्धों को फिर से जोड़ने की चेष्टा की । परन्तु इसके सम्बन्ध में उसकी सभी कोशिशें बेकार हो गयीं। इन्हीं दिनों में छोटे भाई कामबख्श के साथ बादशाह का भयानक झगड़ा हुआ। कामबख्श ने अपने आपको भारत के दक्षिणी मुगल राज्य का बादशाह घोषित किया । शाहआलम अपने छोटे भाई के इस अन्यायपूर्ण कार्य का कुछ प्रतिकार करना चाहता था, परन्तु उसी बीच मुगल शासन के विरुद्ध सिक्खों का विद्रोह बढ़ा। बादशाह के लिए यह विद्रोह अधिक भयानक मालूम हुआ और उसने सब से पहले सिक्खों का दमन करने की बात सोची। उन दिनों में सिक्खों का संगठन जोर पकड़ रहा था और उनकी भाषा में सिक्ख का अर्थ शिष्य होता है । आक्सस नदी के किनारे शाकद्विपी जित वंश में इन सिक्खों के पूर्वजों का जन्म हुआ था। पाँचवीं शताब्दी के मध्यकाल में सिक्खों के पूर्वज भारत के पश्चिमी भाग में आकर बसे । गुरू नानक से जिन लोगों ने दीक्षा पायी, वे सभी सिक्खों के नाम से विख्यात हुए। वे इन दिनों में मुगलों के शासन से अलग होकर अपने आप को स्वतंत्र बनाने की चेष्टा में थे। विद्रोही सिक्खों का दमन करने के लिए बादशाह शाहआलम पंजाब की तरफ रवाना हुआ। जिस समय वह सिक्खों के विरुद्ध युद्ध पर जाने की तैयारी कर रहा था, आमेर और मारवाड़ के राजाओं ने जाकर उससे भेंट की और बिना कुछ उसको जाहिर किये दोनों हिन्दू राजा वहाँ से लौट आये। इतिहासकारों का अनुमान है कि उस समय ये दोनों हिन्दू राजा विद्रोही सिक्खों का अनुकरण करके मुगलों की अधीनता से छुटकारा प्राप्त करना चाहते थे। बादशाह शाहआलम के नेत्रों से इन हिन्दू राजाओं की भावना छिपी न थी। उसने अपने लड़के के द्वारा उनके इन भावों को बदलने की चेष्टा की। परन्तु उसमें उसको सफलता न मिली । आमेर और मारवाड़ के राजा शाहआलम के यहाँ से लौटकर उदयपुर में राणा अमरसिंह के पास पहुँचे और उस समय उन तीनों के बीच संधि हुई । उसमें निश्चय हुआ कि आज से हम लोगों में से कोई भी मुगल बादशाह के साथ सामाजिक अथवा राजनीतिक तथा किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध न रखे। इस संधि के द्वारा उन तीनों राजाओं में सामाजिक सम्बन्धों प्रतिष्ठा हुई,जो पिछले में भंग कर दिये गये थे। इस संधि के द्वारा जो सम्बन्ध राजपूतों के मुगलों के साथ बाकी रह गये थे, वे निर्जीव पड़ गये और मुगलों की अधीनता से राजपूतों को छुटकारा प्राप्त करने का रास्ता मिला। परंतु इन्हीं दिनों संगठित मराठों ने राजस्थान में प्रवेश किया और उनको छिन्न-भिन्न कर डाला। रामपुर के राजा रावगोपाल का लड़का रतनसिंह अपने पिता से विद्रोही होकर मुसलमान हो गया था और उस दशा में औरंगजेब ने रतनसिंह की सहायता करके उसके पिता का राज्य उसको सौंप दिया था। रावगोपाल इसके बाद राणा अमरसिंह की शरण में गया था। राणा ने उसकी सहायता का वादा किया और अपनी सेना के साथ उसने रतनसिंह के विरुद्ध रामपुर पर आक्रमण किया। मुसलमान हो जाने के बाद रतनसिंह का नाम राजमुस्लिमखाँ हो गया। राजमुस्लिमखाँ ने राणा की सेना का मुकाबला किया और राणा को पराजित किया। राणा की पराजय का समाचार बादशाह ने दूत से सुना। उसने यह भी सुना कि पराजित होने के बाद अपना राज्य छोड़कर राणा ने पर्वत पर जाकर रहने का निर्णय किया है। इन समाचारों से बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ और उसने समाचार लाने वाले दूत को इनाम और इकराम दिये । इसके कुछ दिनों के बाद बादशाह को यह भी मालूम हुआ कि राणा की तरफ से साँवलदास नामक एक सरदार ने फिरोजखाँ पर आक्रमण किया। फिरोजखाँ अपना राज्य छोड़कर अजमेर भाग गया । इस लड़ाई में साँवलदास का लड़का 261