पिता का राज्य पारकर वादशाह के बेटे बहादुरशाह के पास पहुँचा । बादशाह ने उसका बड़े सम्मान के साथ स्वागत किया और अपने यहाँ तीन हजार सवार सेना का उसको सरदार बना दिया। साथ ही जीवन-निर्वाह के लिए अपने राज्य के बारह जिले उसको दे दिये। लेकिन कुछ समय में मुगल सेनापति के साथ झगड़ा होने के कारण भीम को बादशाह ने सिंध नदी के पार भेज दिया। काबुल में पहुँचने के बाद कुछ दिनों में उसकी मृत्यु हो गयी। राणा राजसिंह के मरने के पहले उसके साथ सन्धि की शुरूआत हुई थी। उसकी बहुत-सी बातों का निर्णय भी हो गया था। परन्तु सन्धि-पत्र पर दस्तखत होने के पहले ही राणा राजसिंह की मृत्यु हो गयी। इसलिए वह सन्धि अधूरी रह गयी थी। राणा के मर जाने के बाद राज्य का अधिकारी हो जाने पर और सिंहासन पर बैठने के उपरान्त जयसिंह ने बादशाह औरंगजेब के साथ सन्धि कर ली । यह सन्धि बादशाह के लड़के शाहजादा अजीम और सेनापति दिलेर खाँ के द्वारा औरंगजेब और राणा जयसिंह के बीच हुई । राणा राजसिंह के विरुद्ध औरंगजेब ने एक विशाल सेना लेकर आक्रमण किया था। उस युद्ध में अरावली पर्वत के कठिन स्थानों में बादशाह की फौज संकट में पड़ गयी थी। उस समय जयसिंह ने दिलेर खाँ और बादशाह के लड़के के साथ अत्यन्त उदारता का व्यवहार किया, जैसा पिछले पृष्ठों में लिखा जा चुका है। दिलेर खाँ जयसिंह की उस उदारता को भूला न था। सन्धि के समय उदयपुर में मेवाड़ और दिल्ली राज्यों के बहुत से आदमियों का जमाव हुआ था। उसमें दस हजार सैनिक सवारों और चालीस हजार पैदल सिपाहियों के अतिरिक्त अरावली पर्वत पर रहने वाले अगणित संख्या में भील और दूसरी लड़ाकू जातियों के लोग एकत्रित हुए। इस प्रकार एक लाख से अधिक एकत्रित जन समूह ने राणा जयसिंह की जय-जयकार के नारे लगाने शुरू किये। उस समय शाहजादा अजीम के मन में भय उत्पन्न हुआ परन्तु दिलेर खाँ के दिल में जयसिंह की तरफ से किसी प्रकार की आशंका न थी। सन्धि का काम समाप्त हुआ। मेवाड़ राज्य की तरफ से बादशाह को तीन जिले दिये गये और यह तय हुआ कि सन्धि के बाद राणा जयसिंह को लाल रंग के डेरे और छत्र. के प्रयोग का अधिकार न रहेगा। सन्धि का काम सम्पन्न हो जाने के बाद भी उदयपुर में राणा के असीम सैनिकों का एक चित्र देखकर अजीम के मन में जो सन्देह पैदा हुआ था, वह बराबर बना रहा और उस संदेह को दूर करने के लिए मुगल सेनापति दिलेर खाँ ने उदयपुर से विदा होने के समय राणा जयसिंह से कहाः “आपके सरदार और सामन्त स्वाभाविक रूप से कठोर हैं। इस सन्धि का महत्व हमारे और आपके बीच जो कुछ हो सकता है, उसे दूसरे लोग नहीं समझ सकते । आपको इस बात का स्मरण रखने की आवश्यकता है कि यह सन्धि जो इस समय समपन्न हुई है, उस मित्रता की परिचायक है, जो आपके पिता और मेरे बीच में कायम हुई थी। दिलेर खाँ का उद्देश्य दोनों राज्यों के प्रति सराहनीय था परन्तु अपनी चेष्टा में वह सफल न हुआ। राज सिंहासन पर बैठने के चार-पाँच वर्ष बाद जयसिंह को अपनी तलवार का विश्वास करना पड़ा। मुगलों के भीषण आक्रमणों से अपनी रक्षा करने के लिए राणा को फिर पर्वतों का आश्रय लेना पड़ा और अनेक बार युद्ध करने पड़े। इन लड़ाइयों में राणा को बहुत बड़ी आर्थिक हानि उठानी पड़ी। इन कठिनाइयों का सामना करने के बाद भी जयसिंह ने कुछ ऐसे काम किये, जो उसकी योग्यता का परिचय देते हैं। उसने जयसमन्द नाम की 257
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