लगातार युद्धों में पराजित होकर बादशाह जहाँगीर ने एक शक्तिशाली सेना अपने बहादुर बेटे खुर्रम के अधिकार में भेजी। यही खुर्रम बाद में शाहजहाँ के नाम से दिल्ली के सिंहासन पर बैठा । वह युद्ध में लड़ाकू और समझदार था । खुर्रम् की फौज़ के पहुँचते ही मेवाड़ राज्य में घबराहट पैदा हुई। राजपूत इन दिनों में अपनी सैनिक निर्बलता को भली भांति अनुभव करते थे। लड़ाई के अस्त्र-शस्त्रों की भी बहुत कमी थी। बहुत समय से लगातार युद्ध करते हुए अगणित राजपूत अब तक युद्ध में मारे जा चुके थे और जो बाकी रह गये थे, वे बहुत थक गये थे। लगातार युद्धों के कारण मेवाड़ के राजपूतों के साहस निर्बल पड़ रहे थे। परन्तु जो सरदार और सामन्त अभी जीवित थे, वे युद्ध करने के लिए तैयार हो गये। धन की कमी को किसी प्रकार पूरा किया और मेवाड़ के राजपूतों को एकत्रित करके युद्ध की तैयारी की गयी। राजपूत सेना युद्ध करने के लिए मैदान में आ गयी। दोनों तरफ से सैनिक आगे बढ़े और भयानक संग्राम आरम्भ हो गया। शाहजादा खुर्रम के साथ जो मुगल सेना आयी थी, वह बहुत बड़ी थी। उसके सामने राजपूतों की सेना कुछ भी न थी। इसका परिणाम यह हुआ कि कुछ समय तक युद्ध करने के बाद राजपूत मारे गये और अन्त में अमरसिंह की पराजय हुई। इसके बाद मेवाड़ और दिल्ली- दोनों राज्यों के बीच के जीवन में किस प्रकार के परिवर्तन हुए और वे परिवर्तन कैसे हुए, इस बात को बहुत सही-सही जानने के लिए बादशाह जहाँगीर की लिखी हुई पंक्तियों का यहाँ पर उल्लेख करना अत्यन्त आवश्यक मालूम होता है, जिनको उसने स्वयं अपनी लेखनी से अपने रोजनामचे में लिखा था। "अपनी हुकूमत के आठवें साल हिजरी 1022 सन् 1613 ईसवी में मैंने ख्याल किया कि अजमेर की तरफ रवाना होने के पहले मैं अपने लड़के खुर्रम को भेज दूंगा। सफर का इन्तजाम हो जाने के बाद कई तरह के कीमती खिलत, एक हाथी, एक घोड़ा, एक तलवार और एक ढाल मैंने उसको दी । जो फौज उसकी मातहती में थी, उसके अलावा बारह हजार सवार ज्यादा उसको दिये और अजीम खाँ को उसका सिपहसालार बनाकर उसके मातहत लोगों को इनाम दिये।” 'हिजरी 1023 सन् 1614 ईसवी को मैं अपने तख्त पर था और यह साल मेरी हुकूमत का नवाँ वर्ष था कि मेरे लड़के ने आलमगुमान हाथी के साथ दूसरे अठारह हाथी और कुछ आदमी जिनमें कुछ औरतें भी थीं और जो लड़ाई के वक्त गिरफ्तार की गयी थी, मेरी नजर में भेजे । दूसरे दिन उस आलमगुमान हाथी पर बैठ कर मैं शहर में घूमने के लिए गया। उस मौके पर बहुत-सी अशर्फियाँ लुटाई गयीं।" "इसके बाद मुझे खुशखबरी मिली कि राणा अमरसिंह ने सुलह का पैगाम भेजा है और वह मेरी मातहती मंजूर करने के लिए खुशी से तैयार है। मेरे खुशकिस्मत लड़के ने राणा के राज्य में अपनी फौज के बहुत-से नाके कायम कर दिये हैं और उन नाकों पर अपने ही आदमी इन्तजाम कर रहे हैं। मुल्क की आवहवा खराब है और तमाम राज्य बंजर पड़ा हुआ है। वहां पहुंचने में भी परेशानी होती है। इस वजह से कुल मुल्क को कब्जे में लाना नामुमकिन मालूम हुआ। लेकिन मेरी फौज ने मौसमों की कुछ परवाह न करके तमाम मेवाड़ को अपने काबू में कर लिया। वहाँ के कुछ राजपूतों और दीगर लोगों की औरतों के साथ उनके लड़के भी कैद किये गये । राणा इन बातों से बहुत नाउम्मीद हो गया और यह ख्याल करके कि अगर इसी तरह की हालत कायम रही तो या तो मुल्क छोड़ना पड़ेगा या कैद में जाना होगा, बहुत आजिज होकर सुलह की दरख्वास्त की। अपने दो सरदारों को खुर्रम के पास भेज कर राणा ने कहला भेजा कि अगर मुझे माफ किया जाये तो जिस तरीके से दूसरे हिन्दू राजा मातहती में हैं, मैं भी उसके लिये तैयार हूँ और इसके लिये अपने लड़के कर्ण को - 238
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