धीरे-धीरे इतना विशाल हो गया कि शक्तिसिंह के तीन-चार पीढ़ी बाद मेवाड़ के राणा ने आवश्यकता के समय दस हजार शक्तावत वीरों को युद्ध में भेजा था। राणा अमरसिंह से लगातार पराजित होने के बाद भी बादशाह जहाँगीर के उत्साह में कोई कमी न आयी। वह राजपूतों के अहंकार को नष्ट करने की बात बराबर सोचता रहा। इसके कुछ ही समय वाद मुगलों की एक बड़ी फौज तैयार हुई और राणा अमरसिंह पर आक्रमण करने के लिए वह भेजी गयी। उस फौज का सेनापति जहाँगीर का लड़का परवेज था। यह सेना अजमेर में जाकर रुकी। बादशाह जहांगीर ने उस समय परवेज को अपने पास बुला कर उत्साह पैदा करने वाली बहुत-सी बातें कहीं और समझाया- "तुम इस हमले में अपनी कोई ताकत उठा न रखना । मुझे उम्मीद है कि तुमको कामयाबी हासिल होगी। लेकिन अगर राणा अमरसिंह अथवा उसका लड़का कर्ण तुम्हारे पास आए तो तुम खातिरदारी का व्यवहार उसके साथ करना और उस अदव-कायदे को भूल न जाना जो एक बादशाह की तरफ से दूसरे बादशाह के लिये जरूरी होता है। इस बात का भी ख्याल रखना कि दुश्मन के मुल्क को तुम्हारी फौज के सिपाहियों से किसी किस्म का नुकसान न पहुँचे।" मुगल सेना के आने का समाचार पाकर अमरसिंह ने युद्ध की तैयारी की और अपने सामन्तों तथा सरदारों के साथ वह मुगल सेना का मुकाबला करने के लिये रवाना हुआ। अरावली के एक पहाड़ी रास्ते पर दोनों सेनाओं का सामना हुआ और खामनोर नामक स्थान पर युद्ध आरम्भ हो गया। दोनों तरफ से भयानक मारकाट हुई। अन्त में मुगलों की विशाल सेना लगतार पीछे हटने लगी। बादशाह के बहुत-से आदमी मारे गये। इसके बाद दिल्ली की फौज अजमेर की तरफ चली गयी। बादशाह जहाँगीर ने अपने लड़के परवेज के साथ मुगल सेना भेज कर यह आशा की थी कि इस लड़ाई में मुगलों की जीत होगी। परन्तु उसका उलटा हुआ। अबुल फजल ने मुगल सेना की हार को मंजूर करते हुए लिखा है- “शाहजादा परवेज लड़ाई से भागने के वाद एक ऐसे पहाड़ी मुकाम पर पहुँच गया, जो उसके लिये बहुत खतरनाक साबित हुआ। उस हालत में शाहजादा परवेज वहाँ से निकल कर किसी तरह अपनी जान बचा सका।" परवेज की सेना के हार जाने के बाद बादशाह ने दूसरी फौज तैयार की और अपने पोते महावत खाँ को उसका सेनापति बना कर राजपूतों से के लिये भेजा। महावत खाँ बहुत बहादुर था और उसने कई लड़ाइयों में विजय प्राप्त की थी। लगातार राजपूतों से हार होने के कारण बादशाह ने महावत खाँ को अपनी फौज के साथ रवाना किया। महावत खाँ ने राजपूतों की सेना के साथ युद्ध किया लेकिन आखिर में उसकी सेना की पराजय हुई। परवेज का बेटा महावत खाँ इस लड़ाई में मारा गया। बादशाह की फौज ने भाग कर दिल्ली में हाल बताया। उसे सुन कर जहाँगीर जरा भी निराश न हुआ। उसके पास न तो धन की कमी थी और न फौज की। एक फौज के हार जाने पर वह दूसरी फौज को राजपूतों से लड़ने के लिए भेज देता था। मुगलों से लगातार युद्ध करके राणा अमरसिंह की शक्तियाँ अब क्षीण हो गयी थीं। उसके पास सैनिकों की अब बहुत कमी थी। शूरवीर सरदार और सामन्त अधिक संख्या में मारे जा चुके थे। लेकिन राणा अमरसिंह ने किसी प्रकार अपनी निर्बलता को अनुभव नहीं किया। उसने सिंहासन पर बैठने के बाद और राणा प्रतापसिंह की मृत्यु के पश्चात् दिल्ली की शक्तिशाली मुगल सेना के साथ सत्रह युद्ध किये और प्रत्येक युद्ध में उसने शत्रु की सेना को पराजित किया। 237
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