1 था और बहुत पहले अकबर से मिल गया था। वादशाह जहाँगीर ने स्वयं सागर जी का अभिषेक किया और उसे चित्तौड़ का राजा घोषित किया । चित्तौड़ के सिंहासन पर सागर जी को बिठाकर बादशाह जहाँगीर ने समझा था कि मेवाड़ के राजपूत सागर जी को अपना राजा मान लेंगे और इस प्रकार मेवाड़ राज्य मुगलों की अधीनता में आ जायेगा। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। मेवाड़ की प्रजा पहले से ही इस वात को जानती थी कि सागर जी मुगलों से मिल गया है। इसलिए समस्त मेवाड़ के लोग सागर जी से घृणा करते थे। चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठने से सागर जी से मेवाड़ के लोग और भी अधिक घृणा करने लगे। अभिषेक के उत्सव में राज्य का कोई भी आदमी शामिल न हुआ। चित्तौड़ में रहकर सागर जी ने स्वयं इस बात को समझा कि यहाँ के लोग मुझको पापी और अपराधी समझते है। इस प्रकार के वातावरण में सागर जी ने चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठकर सात वर्ष तक राज्य किया। परन्तु उसको स्वयं इस दशा पर संतोष और सुख न था। इससे पहले, जब वह चित्तौड़ का राणा नहीं बना था और मुगल दरबार में रहता था तो वह प्रसन्न था। चित्तौड़ में आकर और सिंहासन पर बैठकर प्रजा की घृणा के कारण वह रात-दिन असंतुष्ट रहने लगा। मनुष्य अपने जीवन में सबसे पहले सम्मान चाहता है जहाँ पर वह रहता है, यदि वहाँ के लोग उससे घृणा करते हैं तो उसके सारे वैभव उसको अपने अपमान के रूप में दिखायी देते हैं। चित्तौड़ में रहकर सागर जी ने भली प्रकार इस बात को समझा कि यहाँ के लोग अमर सिंह को ही अपना राजा मानते हैं। इस दशा में नाम के लिए यहाँ शासन करना मेरे लिए सिवा अपमान के और कुछ नहीं है। इस प्रकार की रात-दिन बहुत-सी बातें सोचकर सागर जी ने अमरसिंह को बुलाया और चित्तौड़ का राज्याधिकार उसे सौंप दिया । सागर जी अपने अपमानित जीवन से बहुत दुःखी हो गया था। इसलिए वह चित्तौड़ से निकल कर कंधार के पहाड़ पर चला गया और वहाँ वह एकान्त जीवन विताने लगा। परन्तु वहाँ पर भी उसको शान्ति न मिली। उसकी इस दशा में दिल्ली के वादशाह ने उसको अपने दरवार में वुलाया और बादशाह जहाँगीर ने स्वयं उसका बहुत तिरस्कार किया। उस अपमान से सागर जी बहुत दुःखी हुआ। अब उसको अपना जीवन भार मालूम होने लगा। इसलिए बादशाह जहाँगीर के सामने सागर जी ने तलवार से अपने प्राणों का अन्त कर लिया। सागर जी के द्वारा अमरसिंह को चित्तौड़ का सिंहासन मिल गया । परन्तु उससे उसको प्रसन्नता न हुई । वह जानता था कि शक्तिशाली मुगल सम्राट की शत्रुता के कारण मैं इस सिंहासन पर सकुशल अधिक समय तक न रहने पाऊंगा। उसे दिल्ली की सेना से प्रत्येक समय भय बना रहता । यद्यपि चित्तौड़ को प्राप्त करने के बाद राणा अमरसिंह ने मेवाड़ राज्य के अस्सी दुर्गों और नगरों को अपने अधिकार में कर लिया था। इन दुर्गों में अन्तला नाम का दुर्ग प्राप्त करने में राणा अमरसिंह के दो श्रेष्ठ सामन्तों में भयानक संघर्ष हुआ था । राणा की सेना में जो राजपूत सरदार थे,वे राजपूतों की बहुत-सी शाखाओं और उपशाखाओं में विभाजित थे। उनमें चड़ावत और शक्तावत नाम की दो राजपूत शाखायें इन दिनों में शक्तिशाली हो रही थीं। दोनों राणा के दरवार में श्रेष्ठता चाहती थीं । इसी प्रधानता को प्राप्त करने के सम्बन्ध में चूड़ावत और शक्तावत सरदारों में उस समय संघर्ष पैदा हुआ, जब दिल्ली के मुगल सिंहासन पर जहाँगीर बादशाह था और वह दो बार अमरसिंह की राजपूत सेना से पराजित हो जाने के कारण तीसरे आक्रमण की तैयारी कर रहा था। 235
पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२३५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।