पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२३४

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सवार हुआ। सभी सरदार अमरसिंह के साथ उस स्थान से रवाना हुए और पर्वत के नीचे की तरफ चलने लगे। रास्ते में सरदारों के साथ बहुत-सी बातें हुईं । उनको सुनकर अमरसिंह में उत्साह पैदा हुआ। सरदारों के मुँह से उसने सुना कि जिस गौरव की रक्षा करने के लिए राणा प्रताप ने अपने जीवन के अंतिम दिनों तक भीषण संकटों का सामना किया था, आज उस गौरव को नष्ट करने के लिए फिर मुगल सेना ने आक्रमण किया है। सरदारों ने कहा, हम लोग जब तक जीवित हैं, उस गौरव को कभी भी नष्ट न होने देंगे।' अमरसिंह की समझ में सब बातें आ गयीं। उसने प्रसन्न होकर और उत्साह में आकर सरदारों के साथ परामर्श किया। उसने समझा कि हम लोगों के पास विशाल सेना नहीं है, परन्तु जितने भी राजपूत और शूरवीर हैं अपनी स्वाधीनता की रक्षा के लिए प्राणों का बलिदान देने को तैयार हैं। अमरसिंह हदय में उत्साह की वृद्धि हुई। अपनी राजपूत सेना को लेकर वह तेजी के साथ शत्रुओं से युद्ध करने के लिए रवाना हुआ। मुगल सेना देवीर नामक स्थान पर मौजूद थी। राजपूत सेना ने वहां पहुँचकर एक साथ भयानक आक्रमण किया। खानखाना का भाई मुगल सेना का सेनापति था। देवेरा पर्वत के पहाड़ी रास्ते पर दोनों सेनाओं का सामना हुआ और भीषण युद्ध आरम्भ हो गया। दोनों तरफ बहुत देर तक युद्ध होता रहा। उस मारकाट में दोनों सेनाओं के बहुत से आदमी मारे गये। सायंकाल का समय हो रहा था। राजपूत सरदारों ने इस समय भयानक मारकाट की। उससे बहुतेरे शूरवीर मुगल मारे गये। दिल्ली की सेना पीछे हटकर भागने लगी और थोड़ी ही देर में युद्ध समाप्त हो गया । सम्वत् 1664 सन् 1608 ईसवी को इस संग्राम में राजपूतों की विजय हुई। इस युद्ध में राजपूत सेना के कर्ण ने अपनी बहादुरी का परिचय दिया। वह राणा का चाचा था और उसी से कर्णावत गोत्र की उत्पत्ति हुई। इस युद्ध में पराजित होने के कारण दिल्ली में बहुत असंतोष पैदा हुआ। वादशाह जहाँगीर ने इस पराजय की आशा न की थी। इसलिए एक वर्ष के बाद सम्वत् 1665 के बसन्त में युद्ध की दिल्ली में फिर तैयारी की गयी और एक विशाल मुगल सेना को लेकर अब्दुल्ला नामक सेनापति मेवाड़ की तरफ चला । इस आक्रमण का समाचार राणा अमरसिंह को मिला। उसी समय उसने अपने सरदारों को बुलाकर एकत्रित किया और युद्ध की तैयारी करके वह अपनी सेना के साथ रवाना हुआ। रणपुर नाम के पहाड़ी रास्ते पर दोनों सेनाओं का आमना-सामना हुआ और मार-काट आरम्भ हो गयी। दोनों तरफ से बहुत समय तक भीषण युद्ध हुआ। अन्त में राजपूतों के आगे बढ़ने से सेना पीछे हटने लगी। उस समय राजपूतों ने मुगलों पर भयानक आक्रमण किया। उसके फलस्वरूप लगभग सम्पूर्ण मुगल सेना मारी गयी । जो मुगल सैनिक वाकी बचे, वे युद्ध से भाग गये।1 देवीर और रणपुर के युद्धों में मुगलों की भयानक पराजय हुई। इस हार से दिल्ली में अनेक प्रकार की चिन्तायें होने लगीं। बादशाह जहाँगीर चिन्तित होकर तरह-तरह की बातें सोचने लगा। उसने किसी प्रकार अमरसिंह को नीचा दिखाने के लिए अपने मंत्रियों से परामर्श किया। उसने सागर जी नामक राजपूत को राणा बनाकर चित्तौड़ के सिंहासन पर बिठाया। इस सागर जी के सम्बन्ध में पहले लिखा जा चुका है। वह राणा प्रताप का भाई इस लड़ाई में राजपूतों की तरफ से जो सरदार मारे गये, उनमें प्रमुख इस प्रकार हैं-देवगढ़ के ठाकुर दूध संगावत, नारायण दास, सूरजमल, यशकरण, शक्तावत सरदार, भानुसिंह का पुत्र पूर्णमल, राठौड़ हरिदास, सादड़ी का राजा झाला, कटिरदास कछवाहा, बेदला का चौहान केशवदास, मुकुन्ददास राठौड़ और जयमाल मुगल - 1. 234