बौना बनाना एवं उसकी महानता को कम करना है। प्रताप का वास्तविक स्वरूप विदेशी शक्ति एवं निरंकुश सत्ता की दासता के विरुद्ध विभिन्न जातियों एवं धमों के लोगों का व्यापक संगठन बनाकर संघर्ष करने वाले योद्धा का स्वरूप है। वस्तुतः किसी भी ऐतिहासिक पुरुष का सही मूल्यांकन उसके काल के विचारों, विश्वासों एवं मान्यताओं की रोशनी में ही किया जाता है । आधुनिक काल की राष्ट्र-सम्बंधी धारणा मध्ययुग की तत्संबंधी धारणाओं से सर्वथा भिन्न है। उस दृष्टि से अकबर के उदार एवं हितकारी प्रयत्नों को "राष्ट्रीय एकता” स्थापित करने का उदेश्य मान लेना सही नहीं होगा। उस काल में धार्मिक कट्टरता से पूर्ण विदेशी राज्यसत्ता के स्थान पर धार्मिक सहिष्णुता एवं उदारता से पूर्ण राज्यसत्ता कायम करना निस्संदेह अपने आपमें बड़ा साहसपूर्ण एवं उपकारी कार्य था, किन्तु उसके पीछे अकवर का मूल उदेश्य भारत में अपने शासन की जड़ें जमाना और अपने वंशीय राज्य को स्थायी, विस्तृत एवं सुदृढ़ बनाना था, जो उससे पूर्वगामी विदेशी शक्तियां अपनी अदूरदर्शी एवं असहिष्णुतापूर्ण नीतियों के कारण नहीं कर सकी थीं। यह तथ्य तत्कालीन विभिन्न फारसी तवारीखों के अध्ययन से भी प्रकट हो जाता है। इस वास्तविकता को मान लेने से अकवर द्वारा भातीय इतिहास में किये गये उदार कार्यों का महत्व कम नहीं हो जाता और न अकवर के इस ऐतिहासिक महत्व के कारण प्रताप द्वारा अकवर की विदेशी एवं निरंकुश सत्ता की दासता के विरुद्ध किये गये महान् स्वातंत्र्य-संघर्ष का महत्व कम हो जाता है। अन्त में हम यह कह सकतें हैं कि राणा प्रताप विदेशी निरंकुश सत्ता की दासता के विरुद्ध स्वातंत्र्य संघर्ष में सर्वस्व होम करने वाला अमर सेनानी, विभिन्न जातियों, धर्मों एवं सम्प्रदायों के प्रति सहिष्णुता की नीति कार पालन करने वाला उदार शासक, स्वयं के सुख-चैन और हितों का त्याग का स्वदेश के हित के लिये भीषण अभावों एवं कष्टों का सामन करने वाला तपस्वी, अपने चरित्र, नैतिकता और त्याग के बल पर सामान्य जन का विश्वास हासिल कर उनका संगठन करने वाला सफल जननायक था। महाराणा प्रताप व उनकी महानता आज इस बात को लेकर बड़ी बहस की जा रही है कि राणा प्रताप को अपने युग का महान् व्यक्ति स्वीकार किया जाये या नहीं। प्रताप के आदर्शों, नीतियों, कार्यकलापों, उपलब्धियों आदि के सम्बन्ध में हमने विस्तृत विवेचना की है, जो उसके व्यक्तित्व की महानता को प्रकट करती है। प्रताप की एक भूल पर विशेष जोर दिया जाता है कि उसने अकबर के साथ नहीं मिलकर साम्राज्यी एकता के महान् कार्य में बाधा डाली। यदि हम स्पष्ट रूप से इस हकीकत को देख लें कि मुगल शासन के साथ मेवाड़ के असहयोग के लिए राणा प्रताप की स्वातंत्र्य-चेष्टा नहीं, अपितु बादशाह अकबर का अहंकार, उच्च प्रतिष्ठा की भावना और निरंकुश शासन की लिप्सा उत्तरदायी थी, तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है। एक प्राचीन गौरवशाली राजवंश के शासक की लिप्सा उत्तरदायी थी, तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है। एक प्राचीन गौरवशाली राजवंश के शासक की भावनाओं और आकांक्षाओं की उपेक्षा करके एवं उनको तुच्छ मान करके उसको अपनी बात मनाने के लिए बाध्य करने का अकबर का हठ, एक ऐसे ऐतिहासिक समझौते के मार्ग में रोड़ा बना, जिसके सम्पन्न होने पर भारतीय इतिहास के लिये बड़े सुपरिणाम हो सकते थे। महाराणा प्रताप ने सिद्धान्तों के आधार पर एक अत्यंत बलशाली शत्रु के अनवरत सैनिक आक्रमणों से उत्पन्न सभी प्रकार की विषम परिस्थितियों से निपटने के लिए दीर्घकाल के लिये जो सुव्यवस्थित प्रशासन आर्थिक-प्रबन्ध एवं सैन्य-संगठन किया, जिसके कारण उसने सफल युद्ध का संचालन करते हुए अपराजेय रहकर शत्रु की तमाम कार्यवाहियों को असफल कर दिया। यह उपलब्धि 230
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