पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२२८

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मेवाड़ के पर्वतीय भाग में छापामार-युद्ध-प्रणाली का सफल संचालन प्रताप की विशिष्ट उपलब्धि रही। लगभग 300 मील की परिधि वाले मेवाड़ के पर्वतीय भू-भाग को सुरक्षा की दृष्टि से उसने एक दुर्ग का रूप दे दिया। इस भू-भाग के सभी प्रवेश मार्गों के नाकों पर शत्रु के प्रवेश को रोकने के लिये हमलावर सैन्य-दल कायम किये। भीतर के प्रधान मार्गों के ऊपर पहाड़ी कंदराओं एवं गुप्त स्थानों में सर्वत्र छापामार सैन्य-टुकड़ियां नियुक्त की, जिनकी आकस्मिक एव तीव्र हमलावर कार्यवाहियों के कारण मुगल सेनापति सदैव भयभीत रहते थे तथा अधिक भीतरी भाग में प्रवेश से कतराते थे। इसी कारण अकबर ने बार-बार अपने सेनापतियों को उलाहने दिये और उसको भारी जन एवं धन की हानि उठाने के कारण मेवाड़ पर हमले बंद करने पड़े। यह राणा प्रताप की रणनीति एवं सैनिक नेतृत्व की बड़ी सफलता रही। राणा प्रताप की कूटनीति अपनी सुनियोजित रणनीति के साथ प्रताप ने चतुर कूटनीति का भी उपयोग किया। प्रारंभिक काल में वह अपनी चतुराई से लगभग तीन वर्षों वक सुलह-वार्ता चलाकर युद्ध को टालने में सफल रहा। उसके पश्चात् 1576-1577 ई. के दौरान वह राजस्थान में मुगल विरोधी पठान एवं राजपूत शक्तियों के बीच तालमेल कायम करने और उनके द्वारा अलग-अलग स्थानों पर एक साथ लड़ाई के मोर्चे खोलने में कामयाब हो गया, इसके कारण प्रताप को अकेला पटकने और मेवाड़ को चारों ओर से घेरने में. अकबर को बड़ी कठिनाई हुई और उसको पूरी कामयाबी कभी नहीं मिली। प्रताप ने विद्रोही राजपूत शक्तियों से निरंतर संपर्क रखा और उनको प्रोत्साहित किया। अपनी सुरक्षात्मक सैनिक कार्यवाहियों में वह सीमावर्ती राजपूत राज्यों से समय-समय पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष सहयोग एवं सहायता प्राप्त करने में कामयाव रहा। इस भांति उसकी कूटनीतिक कार्यवाहियाँ उसकी रणनीति के संचालन में बड़ी सहायक सिद्ध हुईं। कई इतिहासकारों ने राणा प्रताप को अकबर के साथ संधि नहीं करने और उसके "घीय” साम्राज्य में शरीक नहीं होने के लिये कोसा है। किन्तु यह बात उचित नहीं है। जैसा कि अन्यत्र विवेचित किया गया है, राणा प्रताप के लिये बादशाह अकबर के साथ युद्ध करना सभी दृष्टियों से असंभव नहीं तो अत्यंत दुष्कर था और जबकि उसके सभी परंपरागत सहयोगी बादशाह अकबर की अधीनता में जा चुके थे, उस स्थिति में अकबर के साथ शत्रुता जारी रखना और भी संकटकारी था। अतएव उसने शेष मेवाड़ को युद्ध एवं विनाश से बचाने के लिये समझौते हेतु निरन्तर प्रयास किये और अकबर के चार दूतमंडलों को कटुता दिखाये बिना सौजन्यतापूर्वक स्वागत किया। राणा प्रताप ने अकबर के भारत को एकताबद्ध करने के काम में असहयोग करके भूल की अथवा नहीं इसके सम्बन्ध में बड़ा विवाद है। इसका कारण समकालीन साहित्य को संपूर्ण रूप से नहीं देखना और आधुनिक युग के विचारों एवं मान्यताओं की नजर से भूतकाल की घटनाओं को देखना है। वस्तुत: जिस असहयोग की बात की जाती है, उसके लिये प्रताप के बनिस्पत अकबर अधिक दोषी था जो बराबर इस बात पर अड़ा रहा कि प्रताप स्वयं मुगल दरबार में आकर हाजिरी दे । प्रताप ने चार दूतमंडलों से भेंट के समय केवल इसी बात पर जोर दिया कि मेवाड़ के राणा को मुगल दरबार में हाजिर रहने से मुक्त रखा जाये। अकबर की हठ के कारण युद्ध हुआ, जिसका अंत राणा अमरसिंह के काल में जाकर तभी हुआ, जब जहांगीर ने मेवाड़ की इस महत्वपूर्ण शर्त को स्वीकार किया। अवश्य, बाद की पीढ़ियां राणा प्रताप को प्रतिक्रियावादी एवं भारत की एकता के मार्ग का कांटा स्वीकार कर लेती, यदि अकबर की धर्मनिरपेक्ष नीति और इस देश की सभी जातियों एवं 228