कर लिया था माशाह काल अपनी सैन्य टुक्त पाललन कई बार राई लिए घन को हद पालिन ह मेवाड़ में जुट साथ ना मुगल र पाक न चतुर कूटनीतिज्ञ सेनापति अब्दुर्रहीम खानखाना को भामाशाह से मुलाकात करने का आदेश दिया। दोनो की यह भेंट मालवा में हुई, जहां भामाशाह उस समय मौजूद था। खानखाना द्वारा दिये गये प्रलोभनों का बलिदानी वीरवर भामाशाह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह प्रलोभन उस सयम दिया गया जबकि महाराणा प्रताप और उसके सहयोगी भीषण आर्थिक संकट और सैनिक दवाव के वीच जीवन और मृत्यु का संघर्ष कर रहे थे। ऐश्वर्यपूर्ण जीवन के प्रलोभन को ठुकराकर भामाशाह ने स्वतंत्रता और स्वाभिमान का जीवन जीने के लिए संकटों, कठिनाईयों और अभावों से जूझते रहने की स्थति को अपनाना श्रेयस्कर समझा। यह बात भामाशाह की स्वामिभक्ति का उज्जवल प्रमाण है। भामाशाह ने महाराणा प्रताप तथा उनके बाद महाराणा अमरसिंह के राज्यकाल में जिस वीरता, कार्यकुशलता और राज्य-भक्ति के साथ प्रधान का कार्य किया, उससे भामाशाह और उसके परिवार को जो प्रतिष्ठा और विश्वास मिला, उसके कारण भामाशाह के बाद महाराणा अमरसिंह ने उसके पुत्र जीवाशाह को मेवाड़ का प्रधान बनाया, जो बादशाह जहांगीर के साथ की गई सन्धि के समय कुंवर कर्णसिंह के साथ बादशाह के पास गया था। जीवाशाह की मृत्यु के बाद उसके पुत्र अक्षयराज को मेवाड़ का प्रधान बनाया गया। भामाशाह और उसके परिजनों द्वारा अर्पित त्यागपूर्ण सेवाओं के कारण समाज में उनको जो सम्मान मिला, वह वाद के काल में भी कायम रहा। महाराणा को अमूल्य सहयोग कर्मवीर भामाशाह के कृतित्व एवं देन की प्रशंसा करते हुए सुप्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है कि भामाशाह का नाम मेवाड़ के उद्धारक के रूप में प्रसिद्ध है। सुप्रसिद्ध इतिहास ग्रन्थ वीरविनोद के लेखक श्यामलदास ने लिखा है- “भामाशाह वड़ी जुअरत का आदमी था। वह महाराणा प्रतापसिंह के शुरू के समय से महाराणा अमरसिंह के राज्य के ढाई-तीन वर्ष तक प्रधान रहा। इसने बड़ी-बड़ी लड़ाईयों में हजारों आदमियों का खर्चा चलाया। इसने मरने से एक दिन पहले अपनी स्त्री को एक वही अपने हाथ की लिखी हुई दी और कहा कि इसमें मेवाड़ के खजाने का कुल हाल लिखा है। जिस वक्त तकलीफ हो, यह महाराणा को नजर करना । इस खैरख्वाह प्रधान की इस वही के लिखे हुए खजाने से महाराणा अमरसिंह का कई वर्षों तक खर्च चलता रहा। जिस तरह वस्तुपाल, तेजपाल अनहिलवाड़ा, के सोलंकी राजाओं के प्रधान रहे और जिन्होंने आबू पर्वत पर जैन मन्दिर वनवाये, वैसा ही पराक्रमी और नामी भामाशाह को भी जानना चाहिये। निःसन्देह ही भामाशाह की प्रशंसा में जो कुछ भी कहा जाये, अपर्याप्त होगा। वह एक सच्चा देशभक्त,त्यागी और वलिदानी पुरूष था। वह प्रताप की तरह आन-बान का पक्का था। वह कठिन से कठिन संकटों में अविचलित एवं दृढ़ रहने वाला योद्धा था। उसका उदात्त नैतिक चरित्र, उसकी स्वामिभक्ति और देश-रक्षा के लिये सर्वस्व समर्पणकारी भावना, उसका अदम्य साहस और शौर्य, सैन्य संचालन की दृष्टि से उसका उच्च कौशल और शासन-व्यवस्था में निपुणता के गुणों के कारण भामाशाह महाराणा प्रताप का अतिप्रिय और सर्वाधिक विश्वासपात्र सहयोगी बन गया। भामाशाह का देहावसान वि. सं. 1656 माघ शुक्ला 11 ( 27 जनवरी, 1600 ई.) को हुआ, जब वह सिर्फ 52 वर्ष का था। 225
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