मन्दिर के पास भामाशाह का निवास था, जो दीवानजी की पोल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उदयपुर से कुछ मील दूर स्थित सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल जावर में मोतीबाजार के निकट भामाशाह की हवेली होने तथा जावरमाता के विशाल मन्दिर का भामाशाह द्वारा निर्माण किये जाने की मान्यता भी रही है। जन्म व मेवाड़ के प्रधान पद पर नियुक्ति भामाशाह का जन्म सोमवार, आषाढ़ शुक्ला 10, वि. सं. 1604 (28 जून, 1547 ई.) को हुआ माना जाता है। इसके अनुसार भामाशाह प्रताप से सात वर्ष छोटा था। भामाशाह के प्रारम्भिक जीवन के सम्बन्ध में अब तक कोई जानकारी नहीं मिली है। 1572 ई. में महाराणा प्रताप के गद्दीनशीन होने के समय भामाशाह पच्चीस वर्ष का नवयुवक था। उस समय तक सम्भवतः उसके पिता भारमल का देहावसान हो चुका था। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि भारमल अपनी सेवाओं और स्वामिभक्ति के कारण महाराणा उदयसिंह का विश्वासपात्र प्रमुख राजकीय व्यक्ति हो गया था। किन्तु उसको दीवान पद मिल गया हो, ऐसी जानकारी नहीं मिलती। वस्तुतः इस परिवार में यह पद भामाशाह को पहली बार मिला, जो निःसन्देह ही उसके पिता भारमल द्वारा मेवाड़ राज्य को अर्पित की गई उपयोगी सेवाओं के फलस्वरूप तथा नवयुवक भामाशाह की वीरता एवं प्रशासनिक क्षमता के कारण प्राप्त हुआ। ज्ञातव्य है कि चितौड़ पतन (1568 ई) के बाद भामाशाह का परिवार भी महाराणा उदयसिंह एवं उनके सहयोगियों के साथ मेवाड़ की स्वतंत्रता का संघर्ष जारी रखने हेतु पर्वतीय इलाके में चला गया था। प्रताप ने जब नई व्यवस्थाएं एवं परिवर्तन किये, उस समय भामाशाह द्वारा सैन्य-अभियानों में प्रदर्शित-कुशल नेतृत्व तथा राज्य के लिये धन की व्यवस्था करने सम्बन्धी कार्यवाही एवं क्षमता को देखकर 1578 ई. के लगभग राणा प्रताप ने भामाशाह को पूर्व प्रधान रामा महासाणी के स्थान पर राज्य के प्रशासनिक सर्वोच्च पद, दीवान (प्रधान) का उत्तरदायित्व दिया। उस समय तक भामाशाह की आयु तीस वर्ष से अधिक हो चुकी थी। इतिहास इस बात का साक्षी है कि भामाशाह के सम्बन्ध में महाराणा प्रताप का निर्णय सर्वथा सही एवं दूरदर्शितापूर्ण सिद्ध हुआ। हल्दीघाटी-युद्ध में वीरता हल्दीघाटी के इतिहास-प्रसिद्ध युद्ध में भामाशाह और उसके भाई ताराचन्द के मौजूद होने का स्पष्ट उल्लेख तवारीखों में मिलता है । वे दोनों महाराणा प्रताप की सेना के दाहिने भाग में राणा के साथ थे। जब युद्ध आरम्भ हुआ तब राणा प्रताप के नेतृत्व में सेना के दाहिने पक्ष, जिसमें राजा रामसाह तंवर और भामाशाह एवं ताराचंद आदि थे, ने मुगल सेना के बायें पक्ष को छिन्न-भिन्न कर दिया था और मुगल सैनिक भाग कर मध्यवर्ती भाग में मिल गये थे। हल्दीघाटी-युद्ध में मुगल सेना की ओर से लड़ने वालों में "मुन्तखाब उत तवारीख" इतिहास-ग्रन्थ का लेखक मौलवी अल बदायुनी भी था। उसने लिखा कि मेवाडी सेना के हरावल के जबर्दस्त आक्रमण ने मुगल सेना को 6 कोस तक खदेड़ दिया था और उससे राणा की जीत लगभग निश्चित हो गई थी। भामाशाह और उसके भाई ताराचन्द ने में जो युद्धकौशल, वीरता और शौर्य-प्रदर्शन किया, उसके कारण ही बाद में उनको राज्य-के शासन की बड़ी जिम्मेदारियां दी गईं। सैनिक व आर्थिक प्रबन्ध की योग्यता हल्दीघाटी-युद्ध के बाद प्रताप ने मुगलों से लड़ने के लिए दीर्घकालीन छापामार-युद्ध का प्रारम्भ किया, जो लगभग 10 वर्षो (1576-1585) तक चला। प्रताप के कृतित्व की यह चिरस्मरणीय सफलता थी कि उसने न केवल तत्कालीन विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली उस युद्ध 223
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