- 1 महाराणा प्रताप तथा कर्मवीर भामाशाह विदेशी गुलामी को अस्वीकार कर प्रताप ने सभी प्रकार के ऐश्वर्य, प्रलोभन और सुख की जिन्दगी को छोड़ा और अपने परिजनों सहित जीवन-पर्यन्त पहाड़ों एवं जंगलों में संकट झेलते हुए एवं अत्यन्त साधारण जीवन जीते हुए आजादी के लिये संघर्ष किया। महाराणा प्रताप के प्रधान भामाशाह ने अपने शासक का अनुसरण किया और अपने परिजनों सहित सभी सुख-साधनों को स्वतंत्रता के संघर्ष में होम दिया। मेवाड़ के इस स्वतंत्रता-संघर्ष में भामाशाह एक साहसी एवं कुशल योद्धा, एक सुविज्ञ एवं चतुर प्रशासक तथा सक्षम एवं दूरदर्शी व्यवस्थापक के रूप में उभरा । यदि प्रताप के जीवन-आदर्शों एवं संघर्ष ने भारत के जन-जन को स्वतंत्रता के लिए मर-मिटने एवं सर्वस्व बलिदान करने के लिये प्रेरित किया तो उनमें देशभक्ति की भावना पैदा की तथा देश के लिये स्वयं को, अपने परिजनों को तथा अपने साधनों को अर्पित करने के लिये प्रेरणा दी। यही कारण है कि महाराष्ट्र और गुजरात से लेकर बंगाल और आसाम तक तथा कश्मीर से लेकर केरल तक राष्ट्रीय साहित्य में महाराणा प्रताप के साथ-साथ भामाशाह का स्मरण एक वीर योद्धा के साथ-साथ दानवीर एवं बलिदानी देशभक्त के रूप में किया गया भामाशाह का वंश परिचय ऐसी मान्यता है कि भामाशाह ने कावड़िया गोत्र के ओसवाल कुल में जन्म लिया । उसके पिता का नाम भारमल था, इसकी स्पष्ट जानकारी प्राचीन ग्रन्थों में मिलती है समकालीन कवि हेमरत्न सूरि कृत "गौरा बादल कथा पदन्नी चउपई ग्रंथ की प्रशक्ति में उल्लेख मिलता है- पृथ्वी परगटा राणा प्रताप । प्रतपइ दि दिन अधिक प्रताप ॥ तस मन्त्रीसर बुद्धि निधान । कावड़िया कुल तिलक निधान ॥ सामि धरमि धुरि भामुसाह वयरी वंस विधुंसण राह ॥ विदुर वायक्क कृत "भामाबावनी में उल्लेख है कि भामाशाह श्वेताम्बर जैन की नृमन-गच्छ शाखा को मानने वाला था । पृथ्वीराज के कुल में भारमल उत्पन्न हुआ, जिससे कावड़िया शाखा निकली। भारमल के जसवंत, करुण, कलियाण, भामाशाह, ताराचन्द, नामक पुत्र उत्पन्न हुए। प्राप्त जानकारी के अनुसार भामाशाह के पूर्वज अलवर क्षेत्र में रहते थे। इतिहास-प्रसिद्ध मेवाड़ के महाराणा संग्रामसिंह (सांगा) के काल तक भामशाह के पूर्वज मेवाड़ क्षेत्र में आ बसे थे। वि. स. 1616 में उसका पिता भारमल चित्तौड़ में मौजूद था। उससे पूर्व महाराणा संग्रामसिंह द्वारा भारमल को रणथम्भौर का किलेदार नियुक्त किये जाने का प्राचीन पट्टावलियों में स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इनसे यह जानकारी भी मिलती है कि भारमल प्रारम्भ में तपागच्छ सम्प्रदाय का अनुयायी था। उसका परिवार धनी और सम्पन्न था। महाराणा का विश्वस्त दरबारी होने के कारण ही महाराणा संग्रामसिंह द्वारा उसको कुंवर विक्रमादित्य एवं उदयसिंह की सुरक्षा का उत्तरदायित्व देकर रणथम्भौर किले का किलेदार बनाया गया था। जानकारी मिलती है कि महाराणा उदयसिंह ने अपनी गद्दीनशीनी के बाद भारमल परिवार की विशिष्ट सेवाओं के कारण भारमल को एक लाख का पट्टा देकर प्रतिष्ठित किया था। ऐसी मान्यता है कि चित्तौड़ की तलहटी में पाडनपोल के पास भारमल की हस्तिशाला थी और ऊपर महलों के सामने तोपखाने के निकट उसकी हवेली थी। जनश्रुति के आधार पर यह मान्तया भी चली आयी है कि उदयपुर के महलों के निकट गोकुल चन्द्रमाजी के 222
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